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आनन्दघन का रहस्यवाद
जानें। चाहे उनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णायक तथ्य ज्ञात न भी हों, फिर भी उनके काव्य के अन्तर्साक्ष्य से उनके व्यक्तित्व की कुछ जानकारी तो मिल ही जाती है ।
आनन्दघन के संसारी नाम की खोज आज तक नहीं हो पायी, क्योंकि उनकी रचनाओं में और अन्य स्रोतों से इसका कोई संकेत नहीं मिलता। उनकी रचनाओं में जिस 'आनन्दघन' नाम का निर्देश है वह न तो उनका व्यावहारिक जीवन का नाम है और न दीक्षितावस्था का । आनन्दघन उनका मूल नहीं, उपनाम है और यही उपनाम काव्य-जगत् और आध्यात्मिक जगत् में सुप्रसिद्ध है । आनन्दघन ने भी अपनी कृतियों के अन्त में इसी उपनाम 'आनन्दघन' का उल्लेख किया। जैनधर्म में भी उन्हें इसी ‘उपनाम' से पहचाना जाता रहा है । जैन परम्परा में उपनाम से काव्य रचना करने की परम्परा रही है । आनन्दघन की ही भांति श्री कपूरविजय ने भी अपने पदों में 'चिदानन्द' उपनाम का ही प्रयोग किया है । सभी देश-काल के साहित्यकार, काव्यकार उपनाम रखते आए हैं और उसी से काव्य - जगत् में इतनी प्रसिद्धि पा जाते हैं कि उनके वास्तविक नाम से सामान्य जन अपरिचित ही रह जाते हैं ।
कतिपय विद्वानों का मत है कि आनन्दघन का दीक्षितावस्था का मूल नाम 'लाभानन्द' था । हम इस सम्भावना को इनकार नहीं कर सकते । सम्भवतः जब आनन्दघन दीक्षित हुए होंगे, तब प्रारम्भ में उनके गुरु ने आनन्दघन की आत्मिक आनन्द की प्राप्ति की ओर विशेष रुचि देखकर 'लाभानन्द' नाम रख दिया हो और बाद में जब लाभानन्द ने उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास के सोपान पर बढ़ते हुए आत्मिक आनन्द का रसास्वादन कर लिया तो गुरू ने ही उनका उपनाम 'आनन्दघन' रखा हो और जनसाधारण भी आनन्दघन के नाम से सम्बोधित करने लगे हों ।
यह भी सम्भव है कि दीक्षा देते समय गुरु ने आनन्दघन को आत्मोत्कर्षं करने हेतु 'लाभानन्द' नाम देकर उसका महत्त्व समझाया हो और प्रेरणा दी हो । 'लाभानन्द' का अर्थ होता है - आनन्द ही जिसका लाभ या लक्ष्य हो । इसका शब्दश: अर्थ होगा - आनन्द की प्राप्ति । किन्तु अपनी साधना में आनन्द के चरमोत्कर्ष या अतुलानन्द की प्राप्ति पर उन्हें उपनाम रखने की प्रेरणा मिली हो ।