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आनन्दघन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
इसमें उन्होंने सभी महापुरुषों के प्रति निष्ठा व्यक्त करते हुए अपनी • अनुपम उदारता का परिचय दिया है । उन्होंने यथार्थ स्वरूप का विश्लेषण
भी किया है। जनसाधारण के बीच भेदभाव की खाई मिटाने हेतु अनेकान्त-मर्मज्ञ सन्त आनन्दघन परम सत्य (शुद्ध चैतन्यमय आत्मा) का सहज स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि राम-रहीम, कृष्ण-करीम, महादेव एवं पार्श्वनाथ एक ही परम सत्य के विभिन्न रूप हैं। उदाहरणस्वरूप, जैसे मिट्टी से विभिन्न प्रकार के पात्र बनाये जाते हैं और उन्हें भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है लेकिन मूलतः मिट्टी एक ही है, भले ही पात्रों की विभिन्नता के कारण हम उनका नामकरण अलग-अलग कर देते हैं, ठीक वैसे ही परम सत्य का स्वरूप भी निश्चय दृष्टि से एक ही है, व्यवहार से उन्हें विभिन्न नामों से कल्पित किया जाता है ।
इस प्रकार, कहा जा सकता है कि आनन्दघन ने धर्मान्धता, संकीर्णता असहिष्णुता एवं कपमण्डयाना से मानव-समाज को ऊपर उठाकर एकता का अमृत पान कराया। इससे उनके समय की राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थिति का भी परिचय मिलता है। मूलनाम | उपनाम
सन्त आनन्दधन का जन्म किस नगर में हुआ, इनके माता-पिता कौन थे, इनका जन्म-नाम क्या था, इनके गुरू कौन थे और ये किस सम्प्रदाय में दीक्षित हुए तथा इनका देह विलय कहां हुआ ? आदि के बारे में अभी तक अन्तिमरूप से निर्णायक ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध नहीं। विद्वानों में इस सम्बन्ध में मतवैभिन्य एवं विवाद है। __ जैनधर्म के अनुसार दीक्षोपरान्त साधु-सात्रियों के सांसारिक नाम, गोत्र, वंश-परम्परा आदि बदल जाते हैं। सन्त अपने सांसारिक नाम, गोत्र, जन्मस्थान, जन्म-तिथि आदि की सूचना देने के प्रति उपेक्षाभाव ही रखते हैं। वे अपनी कृतियों में केवल गुरू-परम्परा का ही उल्लेख करते हैं, वंश-परम्परा का नहीं। इस कारण उनके माता-पिता-परिजनों आदि का कुछ भी पता नहीं चलता। आनन्दघन के साथ भी यह कठिनाई है। वे इतने आत्मस्थ सन्त थे कि 'जिन' की महिमा के गाने में उनको आत्मपरिचय रूप विज्ञापन की आवश्यकता ही अनुभूति नहीं हुई। यह तो हमलोगों की जिज्ञासा है कि उनकी वंश-परम्परा और जीवनकाल आदिको