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आनन्दघन का रहस्यवाद है और उसका जीवन आनन्दमय बन जाता है। एक पद में आनन्दघन ने आत्मोपलब्धि की इस स्थिति का बड़ा ही मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है। विमलजिन स्तवन में वे मस्ती में झूम उठते हैं, उनका रोम-रोम पुकार उठता है
दुःख दोहग दूरै टल्या रे, सुख संपत । भेट । धींग धणी माथे कियो रे, कुण गंजे नर-खेट ।।
विमल जिन दीठा लोयणे आज, म्हारा सीझा वांछित काज ॥' आज मैंने विमलजिन को दिव्य-नेत्रों से प्रत्यक्ष देख लिया है, मुझे उनका साक्षात्कार हुआ है। इससे मेरा मनोवांछित कार्य सिद्ध हो गया। परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार एवं आत्मोपलब्धि की दशा में आत्मा स्वयं परमात्मा बन जाता है। जैनदर्शन का प्राणभूत सूत्र है-'अप्पा सो परमप्पा'। इसीलिए आनन्दघन परमात्म-तत्त्व के दर्शन करके स्वयं को कृतकृत्य मानते हैं। यहाँ उनके द्वारा प्रयुक्त 'लोयण' शब्द में गूढ़ रहस्य भरा हुआ है। सामान्यतया 'लोयण' का अर्थ है नेत्र (लोचन)। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या परमात्मा का वास्तविक साक्षात्कार या दर्शन चर्म-चक्षुओं से हो सकता है ? इसका समाधान स्वयं आनन्दघन ने अजितजिन स्तवन में किया है। उन्होंने स्पष्टतः यह कहा है :
चरम नयन करि मारग जोवतो, भूल्यो सयल संसार । चर्म-चक्षुओं से परमात्म-पथ का दर्शन करने के भ्रम में तो समूचा संसार पड़ा हुआ है। किन्तु परमात्म-पथ के दर्शन के लिए तो दिव्य-चक्षु अर्थात् जिन-चक्षु चाहिए। उस मार्ग को किन चक्षुओं से देखा जाय इस सम्बन्ध में वे स्पष्ट कहते हैं :
जिण नयने करि मारग जोइए, नयण ते दिव्य-विचार । परमात्म-पथ देखने के लिए जिन अर्थात् परनान-म्पो नेत्रों की आवश्यकता है। आत्म-ज्ञान रूपी नेत्रों के द्वारा ही परमात्मा के मार्ग को देखा
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, विमलजिन स्तवन । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, अजितजिन स्तवन । ३. वही।