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आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद
३३१ होकर परमात्म अवस्था का चिन्तन करते हैं। यही नहीं, बहिरात्म-दशा के विसर्जन हो जाने से आत्मा की परमात्मा के साथ इतनी एकरूपता हो जाती है कि वह परमात्मरूप हो जाता है। वस्तुतः जैनदर्शन में साधक और सिद्ध, भक्त और भगवान्, आत्मा और परमात्मा भिन्न-भिन्न सत्ताएँ नहीं हैं। जैन-दृष्टि आत्मा और परमात्मा में परम अद्वैत मानती है, क्योंकि परमात्मा आत्मा की ही शुद्ध दशा है। तादात्म्य अथवा आत्मोपलब्धि की अवस्था __ आत्म-समर्पण की स्थिति के पश्चात् रहस्यवाद में अन्तिम अवस्था आत्मोपदविध अथवा अपरोक्षानुभूति की है। यही आत्मोपलब्धि या अपरोक्षानुभूति साधक के लिए सिद्धावस्था या मुक्तावस्था बन जाती है। कतिपय भारतीय रहस्यवादियों ने इसे तादात्म्य की अवस्था भी कहा है
और अण्डरहिल ने इसे 'युनिटी आफ द सोल' कहा है। साधक के इस स्थिति में पहुंचने पर हृदय की समस्त मोह-प्रन्थियाँ विदीर्ण हो जाती हैं
और आत्मा का परमात्मा से तादात्म्य हो जाता है। वस्तुतः रहस्यवादी साधक का अन्तिम लक्ष्य या परम साध्य इसी अवस्था को प्राप्त करना है। न केवल रहस्यवादियों का, अपितु दार्शनिकों का भी मुख्य प्रयोजन आत्मदर्शन और आत्मोपलब्धि ही रहा है। इस अवस्था को उपनिषदों में 'ब्रह्मभाव' की संज्ञा दी गई है। उनमें इस स्थिति का वर्णन बड़े विशद रूप में पाया जाता है। मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है-"उस ब्रह्म के दर्शन होने पर हृदय की समस्त अज्ञान रूपी ग्रन्थियाँ नष्ट हो जाती हैं और सब प्रकार के संशय दूर हो जाते हैं। साधक के समूचे पाप-कर्म भी क्षय हो जाते हैं।" इसी ब्रह्म-साक्षात्कार या ---- ।र की आनन्दानुभूति का आस्वादन रहस्यवादी सन्त आनन्दघन ने भी किया है।
आनन्दघन ने भी उपनिषदों की ही भाँति आत्मोपलब्धि की दशा का वर्णन किया है। मुण्डकोपनिषद् की भाँति वे कहते हैं कि आत्मोपलब्धि होने पर समस्त दुःख और दुर्भाग्य नष्ट हो जाते हैं। उनका विश्वास है कि आत्मोपलब्धि होते ही साधक का संसार-सागर से निस्तार हो जाता १. भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्व संशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ।।
-मुण्डकोपनिषद्, २।२।८।