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________________ आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद ३०१ तरह, चन्द्रप्रभ जिन स्तवन में भी परमात्मा के शान्त, निर्मल, निर्विकार मुखरूपी चन्द्रमा के दर्शन की तीव्र अभीप्सा प्रदर्शित हुई है । निम्नांकित पंक्तियों में आनन्दघन की अन्तरात्मचेतना चन्द्रप्रभ जिन स्तुति के माध्यम से शुद्धात्मा (परमात्मा) के मुख-चन्द्र का दर्शन करने को उत्कण्ठित होकर अपनी सखी से कह उठती है : - चन्द्रप्रभ मुखचन्द सखी मुनै देखण दे, उपसम रसनो कंद | सखी० । सेवै सुरनर इन्दसखी, गति कलिमल दुःख दंद । सखी० ॥ हे सखी ! तू मुझे चन्दप्रभ जिन परमात्मा के मुख रूपी चन्द्र के दर्शन कर लेने दे, क्योंकि परमात्मा का मुख चन्द्र शान्त ( उपशम) रस का मूल है और वह राग-द्वेष आदि समस्त दुःख- द्वन्द्व से रहित है अर्थात् जिसके भीतर से समस्त विकार दूर हो गए हैं। उक्त पंक्तियों में परमात्म-मुख की दो विशेषताओं का दिग्दर्शन कराया गया है- 'उपशम रस नो कंद' तथा गतकलिमल - दुःख द्वन्द्व । परमात्मा के मुख चन्द्र को विशेषता यह है कि एक तो वह शान्त रस का मूल है और दूसरा समस्त क्लेश, मालिन्य एवं दुःख द्वन्द्वों से रहित है । यद्यपि प्रस्तुत कृति में 'देखण दे' शब्द की बार-बार पुनरुक्ति हुई है तथापि यह पुनरुक्ति दोष न होकर कविता का गुण है । यहाँ बार-बार आनन्दघन की अन्तरात्मा द्वारा 'देखण दे' शब्द का प्रयोग करना उनकी परमात्मा के मुख चन्द्र के दर्शन की आतुरता या तीच्छा को द्योतित करता है । उक्त कथन में परमात्मा के मुख चन्द्र का स्वरूप उसके दर्शन का महत्त्व तथा दर्शन की तीव्रता को अभिव्यक्त किया गया है, किन्तु प्रश्न यह है कि - अबतक आनन्दघन की अन्तरात्मा परमात्मा के मुख-चन्द्र के दर्शन के लाभ से वंचित क्यों रही ? इसके उत्तर में वह अपनी लम्बी आत्म-यात्रा ( जीवन-यात्रा ) का इतिहास प्रस्तुत करती है। वह कहती है कि सूक्ष्म निगोद से लेकर अब तक मैंने विभिन्न गतियों और योनियों में परिभ्रमण किया अर्थात् संसारी जीव के समस्त प्रकारों में से कोई भी ऐसा प्रकार नहीं छोड़ा, जहाँ मैंने जन्म न लिया हो, इस बात को वैराग्यशतक में भी कहा गया है, किन्तु कहीं भी परमात्म १. आनन्दघन ग्रन्थावली, चन्द्रप्रभ जिन स्तवन । २. नसा जाई, न सा जोणी, न तं ठाणं, न तं कुलं । न आया, न मुआ जत्थ, सवे जीवा अनंत सो । - वैराग्यशतक, गाथा २३ । उद्धृत - श्री जैन धर्मप्रकरण रत्नाकर, पृ० ४७१ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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