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आनन्दघन का रहस्यवाद
की प्यासी बनकर अनेक विघ्नों और संकटों के बीच भी दर्शनोत्सक है। उनकी परमात्म-दर्शन की पिपासा निम्नांकित पंक्तियों में अभिव्यंजित
अभिनन्दन जिन दर्शन तरसीए, दर्शन दुर्लभदेव ।
मत मत भेदे जो जइ पूछीए, सहु थापे अहमेव ।' आनन्दघन की अन्तरात्मा परमात्मा के दर्शन के लिए अत्यधिक तरस रही है, किन्तु परमात्म-दर्गन (आत्म-दर्शन) अतीव दुर्लभ है। इसका कारण यह है कि अभी आत्मा पर कर्मों के नाना आवरण पड़े हुए हैं, इसी लिए परमात्मा के दर्शन में अनेक विघ्न-बाधाएँ अड़ी खड़ी है । विघ्नबाधाओं के उपस्थित होने के उपरान्त अन्ततः आनन्दघन की अन्तरात्मा कृत संकल्प होकर पुकार उठती है
तरस न आवे हो नरण-जीवन तणो, सीझे जो दर्शन काज ।
दरसण दुलंभ सुलभ कृपा थकी, आनन्दघन महाराज ॥२ परमात्म-दर्शन की पिपासा उन्हे इतनी बेचैन किए हुए है कि इसके लिए वे जीवन-मरण की बाजी तक लगाने के लिए तत्पर हो उठते हैं । परमात्मदर्शन का कार्य यदि सफल हो जाय तो जन्म-मरण के त्रास या कष्ट की उन्हें कोई परवाह नहीं है, क्योंकि उनका दृढ़ विश्वास है कि परमात्मा के दर्शन से तो जन्म-मरण के चक्र में भटकने का कष्ट ही सदा के लिए मिट जाएगा। यद्यपि परमात्म-दर्शन दुर्लभ अवश्य है, तथापि आनन्द-कन्द परमात्मा की यदि कृपा हो जाय तो यह सुलभ भी है। तात्पर्य यह कि दर्शन की पिपासा जागृत होने पर साधक उसकी सिद्धि के लिए जीवनमरण की बाजी लगा कर भी परमात्मरूप प्रिय के दर्शन करना चाहता है। अतएव आनन्दघन ने यथार्थ ही कहा है कि-'यदि दर्शन प्राप्ति का मेरा कार्य सिद्ध हो जाय तो मुझे जन्म-मरण का कोई कष्ट नहीं है।' उन्हें तो केवल एक ही तीव्र प्यास है और वह है परमात्म-दर्शन की शुद्धात्म-दर्शन की। प्रस्तुत कृति में आनन्दघन की परमात्म-दर्शन की तीव्र अभिलाषा अभिव्यंजित हुई है। इसमें दर्शन की महत्ता के साथ-साथ उसकी दुर्लभता के विभिन्न कारणों पर भी प्रकाश डाला गया है। इसी
१. आनन्दधन ग्रन्थावली, अभिनन्दन जिन स्तवन । २. वही, ६॥