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________________ २९६ आनन्दघन का रहस्यवाद हकीम भी शान्त नहीं कर सकता। यह विरह की आग तो एक मात्र आनन्दमय प्रिय के मिलन रूप अमी-वर्षा से ही शान्त हो सकती है : पट भूषण तन भौकन उठे, भावै न चोकि जराव जरीरी। सिव कमला आली सुख न उपावत, कौन गिनत नारी अमरी री॥ सास विसास उसास न राखै, नणद निगोरी भोरै लरीरी। और तबीब न तपति बुझावै, आनन्दघन पीयूष झरी री॥' विरहाग्नि की ज्वाला अभी मन्द नहीं हुई है। वह आगे अधिकाधिक वेग को पकड़ती ही है। विरहिणी के अन्तस् की विरह-व्यथा से भरी हुई उत्तप्त गति का मार्मिक चित्रण निम्नांकित शब्दों में देखा जा सकता पिय विण कोन मिटावै रे, विरह व्यथा असराल । नींद निमाणी आखितेरे, नाठी मुझ दुःख देख ॥ दीपक सिर डोले प्यारे, तन थिर धरै न निमेष ॥१॥ ससि सराण तारा जगी रे, विनगी दामिनि तेग । रयणी दयन मतै दगो, मयण सयण विणु वेग ।।२।।२ विरह की जो अत्यन्त उग्र पीड़ा समतारूपी विरहिणी को इस समय हो रही है उसे चेतनरूप प्रिय के अतिरिक्त दूसरा कौन दूर कर सकता है ? समता की इस भयंकर विरहावस्था के दुःख को देखकर मानव मात्र को प्रिय लगने वाली निद्रा भी उसके पास से भाग गई अर्थात् प्रिय के विरह में नींद भी उसकी आँखों से चली गई। इतना ही नहीं, अपितु सिर दीपक की भांति आन्दोलित हो रहा है और सारा शरीर निमिष मात्र के लिए भी स्थिर नहीं रह रहा है। तात्पर्य यह है कि विरहिणी की विरह-व्यथा को नींद टेढ़ी नजर से देखकर उसे छोड़कर भाग गई। लौकिक व्यवहार में विरहिणी स्त्री की जो दशा प्रिय के वियोग में होती है, वही दशा आध्यात्मिक विरह में समता विरहिणी की चेतन प्रिय के वियोग में हो रही है। प्रिय के वियोग में उसे नींद नहीं आती है, उसका सिर डोल रहा है और शरीर भी एक क्षण के लिए स्थिर नहीं रहता। चन्द्रमा अस्तंगत है, तारे टिमटिमा रहें हैं और बिजली तलवार की भांति १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद १६ । २. वही, पद २७ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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