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________________ आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद २९५ वियोगरूप दुःख-सागर के घाट को पार करने के लिए वह आनन्द समूह रूप प्रभु से प्रेम-भक्तिरूपी नौका माँगती है ताकि वह विरह रूप दुःखसागर को पार कर प्रिय के दर्शन कर सके। 'प्राणनाथ बिछे की वेदन, पार न पावू पावू थगोरी'-इस आध्यात्मिक विरह की तड़पन को आनन्दघन ने एक अन्य पद में और भी स्पष्ट करके कहा है कोण सथण जाणे पर मननी वेदन विरह अथाह । थर थर देहड़ी धूजै म्हारी, जिम वानर भरमाह ॥' दूसरे के मन की अथाह विरह की पीड़ा को कौन जान सकता है। इसे तो केवल भुक्तभोगी ही जान सकता है । मन की विरह-वेदना की कोई थाह नहीं पाई जाती । जिस प्रकार माघ मास की भयंकर शीत में बन्दर काँपते हैं, उसी तरह प्रिय की विरह-व्यथा के कारण नमता-विरहिणी का शरीर भी थर-थर कांप रहा है। उसकी यह विरह-व्यथा इतनी अधिक बढ़ गई है कि उसे न अपने देह की, न घर की और न स्नेही जनों की सुध-बुध है । इस विरह-व्यथा को दूर करने का उपाय यह है कि यदि आनन्द समूह रूप प्रिय समता-प्रिया का हाथ पकड़ ले अर्थात् उसे अपना ले तो विरह-व्यथा का अन्त आ सकता है और उसके हृदय में हमेशा के लिए उत्साह तथा आनन्द का साम्राज्य छा सकता है कोई देह न गेह न नेह न रेह न, भावै न दुहड़ा गाह । आनन्दघन वाल्हा बाहड़ी साहबा, निसदिन धरूँ उमाह ॥' यही बात प्रकारान्तर से एक अन्य पद में भी कही गई है कि विरहावस्था में विरहिणी को जड़ाऊ चौकी भी अच्छी नहीं लगती है और वस्त्राभूषण तो शरीर पर धारण करने पर मानों आग भड़कने लगती है। यही नहीं, उसे प्रिय के अभाव में मोक्ष लक्ष्मी भी सुखदायी नहीं लगती है तो फिर स्वर्ग की अप्सराएं तो किस गिनती में है ? कहने का अभिप्राय यह है कि आनन्दघन रूप समता-प्रिया को शुद्धात्म-प्रिय के अतिरिक्त न स्वर्ग-सुख ही चाहता है और न मोक्ष-सुख की स्पृहा है। उसे तो केवल मुद्धात्म-प्रिय से मिलन की उत्कण्ठा है, किन्तु अभी प्रिय से मिलन नहीं हुआ है। अतः उसकी विरह-वेदना इतनी अधिक बढ़ चुकी है कि उसे वैद्य या १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद २२ । २. वही, पद २२ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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