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आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद
२९३ है कि मेरी इस विरह-व्यथा पर दुनिया के लोग भले ही हँसे, किन्तु मैं तो प्रिय के वियोग में अत्यधिक झुलस रही हूँ। प्रिय के बिना विरहिणी घर में कैसे निवास करे ? यद्यपि सुहावनी शय्या बिछी हुई है, चाँदनी रात है, पुष्पवाटिका है, मन्द-मन्द शीतल पवन बह रहा है और सभी सखियाँ मनोविनोद कर रही हैं । इस प्रकार आमोद-प्रमोद के सभी साधन विद्यमान हैं, तथापि विरहिणी का मन प्रिय के विरह में उन्मत्त होकर तप्त हो रहा है । ये सभी आनन्ददायक वस्तुएँ विरह-ताप को अधिक प्रज्ज्वलित कर रही हैं। वह प्रिय के आगमन की प्रतीक्षा में बार-बार पृथ्वी तथा आकाश की ओर देख रही है, किन्तु ऐसे में प्रिय का अदृश्य रहना लोगों के लिए एक तमाशा हो गया है । इसका कारण स्पष्ट है कि दृश्य में अदृश्य-अरूपी आत्म-तत्त्वरूप प्रिय को देखने का प्रयास किया जा रहा है जो जनसाधारण के लिए एक आश्चर्यजनक बात है और इसीलिए उनके लिए यह एक खेल-सा प्रतीत हो रहा है। किन्तु विरहिणी के लिए तो यह तमाशा न होकर अतीव दुःख का विषय है। प्रिय के अनागमन से उसके शरीर का रक्त-मांस सूख रहा है और निःश्वास छोड़ती हुई वह निराश हो चुकी है।
वास्तव में आनन्दघन रूप समता-विरहिणी अपने शुद्धात्म-चेतन प्रियतम को पाने के लिए छटपटा रही है । प्रिय के बिना उसके प्राण क्षण भर भी धैर्य धारण नहीं कर रहे हैं। अब उसके धैर्य का बाँध टूट चुका है। इसीलिए वह कहती है कि सज्जनों से स्नेह-प्रेम करने वाला वह प्रियप्रेमी मुझे कब मिलेगा, उसके दर्शन कब होंगे या किस दिन उससे भेंट होंगी ? वियोग सहने की सामर्थ्य अब उसमें नहीं रह गई है, किन्तु यह
१. भोरे लोगा झूरू हुं तुम भल हासा ।
सलुणे साहब बिन कैसा घर बासा ॥ १ ॥ सेज सुहाली चांदणी राता, फूलड़ी वाड़ी सीतल वाता । सयल सहेली करै सुख हाता, मेरा मन ताता मुआ विरहा माता ॥२॥ फिरि फिरि जोवों धरणी अगासा, तेरा छिपना प्यारे लोक तमासा ।। उचले तन तइ लोहू मांसा, सांइडा न आवै धण छोड़ी निसासा ॥ ३ ॥
-आनन्दधन ग्रन्थावली, पद १९ ।