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आनन्दघन का रहस्यवाद प्रिय के बिना उसे प्रत्येक पल छह माह के बराबर लग रहा है, किन्तु निष्ठर पति अब भी इतना नहीं समझ पा रहा है।' जो अमानमत्री प्रेमयोगी साधक होते हैं, वे शुद्धात्मरूप प्रिय को पाने के लिए अत्यधिक व्याकुल हो उठते हैं। जब तक आत्म-प्रिय से मिलन नहीं होता है तब तक उनके हृदय में विरहाग्नि की असह्य ज्वाला उठती रहती है। इस सम्बन्ध में आनन्दघन की उक्ति यथार्थ ही है :
विरहानल जाला अति प्रीतम, मौपै सही न गई। विरहजनित टीस एवं वेदना की भी अभिव्यक्ति उनके पदों में स्थान-स्थान पर बड़ी ही भावात्मक शैली में हुई है। एक पदमें उन्होंने कहा है कि प्रिय के विरह में विरहिणी स्त्री को शृंगार के सर्वसाधन दुःख के कारण होते हैं। उनकी समतारूपी प्रिया अनुभव रूप केवट से अपनी विरह व्याकुलता के सम्बन्ध में कह रही है कि अब मैं मिष्टभाषी प्रियतम के बिना प्रसन्नतापूर्वक नहीं रह सकती । प्रिय के अभाव में रंगीन चुनरी, लट, हीर-चीर, कत्था, सुपारी, पान का बीड़ा, माँग का सिन्दूर, चन्दन का विलेपन आदि सुखकर वस्तुएँ भी पीड़ा पहुँचा रही हैं। साथ ही विरहकीड़ा शरीर-काष्ठ को खा रहा है। ऐसी स्थिति में विरहिणी जहाँ-तहाँ अपने प्रिय को खोज रही है। किन्तु वह कहीं भी नहीं दिखाई दे रहा है। अतः सारा संसार उसे सुनसान प्रतीत हो रहा है। प्रिय को खोजते-खोजते कई रात्रियाँ बीत गईं और अनेक दिन भी व्यतीत हो गए फिर भी छेहदेनेवाले प्रिय ने अब तक घर में आगमन नहीं किया है। आगे वह कहती
१. समझत नांहि निठूर पति एती, पल इक जात छै मासी ।
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ४३ । २. वही, पद ४८। ३. मेरे मांझी मजीठी सुण इक वाता, मीठई लालन बिन न रहुँ
रलियाता ॥१॥ रंगत चूनडी दुल डी चीडा, काथ सुपारी रू पान का बीडा । मांग सिंदूर संदल करै पीडा, तन कठडा कोरे विरहा कीडा ॥२॥ जहां तहां ढूढू ढोलन मीता, पण भोगी भंवर बिन सब जग रीता। रयण बिहाणी दीहाडा बीता, अज हुँ न आये मुझे छेहा दीता ॥ ३ ॥
-वही, पद २०।