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________________ आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद २८९ मेघ के बरसने से चारों ओर कीचड़ हो जाता है, तव बादलों को बरसते देख विरहिणी के नयनों से भी आँसुओं की झड़ी लग जाती है और फलस्वरूप आँसुओं के अत्यधिक बहने से उसके समीप कीचड़ हो जाता है। वास्तव में आध्यात्मिक विरह की वेदना अथाह होती है। एक ओर विरहिणी की आँखों में से अश्रुधारा का प्रवाह चालू है तो दूसरी ओर उसका हृदय-सरोवर एकदम सूखा हुआ है। इस सम्बन्ध में आनन्दधन रूप नमना-विरहिणी का कथन है कि श्रावण-भादों में चारों ओर घनघोर घटाएँ छायी हुई हैं और बीच-बीच में बिजली भी चमक रही है। इस समय समस्त नदियाँ-नाले और तालाब भरे हुए हैं, किन्तु प्रिय के वियोग में मेरा हृदयरूपी सरोवर तो आनन्द-जल से नितान्त रिक्त है श्रावण-भादू घनघटा, बिच बीज झबूका हो। सरिता सरवर सव भरै, मेरा घट सर सूका हो ॥' साथ ही साथ पिय-पिय की रटन को पपीहे की वाणी से सम्बद्ध कर विरह का जीता-जागता चित्र आनन्दघन ने प्रस्तुत किया है । देखिए मिलापी आन मिलावो रे, मेरे अनुभव मीठडे मीत । चातिक पिउ पिउ करै रे, पीउ मिलावे न आन । जीव पीवन पीउं पीउं करै प्यारे, जीउ निउ आन अयान ॥२ समता-प्रिया कहती है कि हे अनुभव मित्र! अब तुम चेतनरूप प्रिय को लाकर मुझसे मिला दो। मेघरूप प्रिय के सम्मुख देखकर पपीहा भी पिउपिउ (प्रिय-प्रिय) शब्दों का रटन कर रहा है, किन्तु प्रिय को लेकर मिलाता नहीं है। पपीहे की पिउ-पिउ की तान को सुनकर मेरा जीवरूपी पपीहा भी अपने जीवनधनरूपी प्रिय को घर पधारने के लिए 'पिउ-पिउ' (प्रियप्रिय) की ध्वनि अनवरत कर रहा है। वास्तव में प्रिय के अभाव में विरहिणी सदैव दुःखी रहती है और अपनी सुध-बुध खोकर वह इधर-उधर घूमती रहती है। प्रियतम के अतिरिक्त उसके तन-मन की पीड़ा को कौन समझ सकता है ? और वह किसके सामने रुदन कर अपनी इस विरहव्यथा को दिखाए। रात्रि भी अपने मुख के तारे रूपी दाँत को दिखाकर १. आनन्दधन ग्रन्थ वली, पद ३२ । २. वही, पद ३० ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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