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आनन्दघन का रहस्यवाद
विरहावस्था में भोजन और जल-पान करना तो दूर रहा, तु विषयक चर्चा ही मिट गई । किन्तु यह बात किसको कही जाय और कहे भी तो कोई विश्वास नहीं कर सकता । वास्तव में जहाँ समता -प्रिया प्रिय के वियोग में अपनी सुध-बुध ही भूल गई है, वहाँ खाने-पीने की कथा का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यद्यपि ममता के घर से आज कल में ही चेतन रूप प्रियतम के घर आने की आशा थी और इसी आशा के सहारे अब तक उसने अपने प्राण टिकाए रखे किन्तु अभी तक प्रियतम का आगमन नहीं हुआ है।
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विरह के पात
इससे उसकी विरह-वेदना और अधिक बढ़ती जा रही है और नेत्रों से अश्रुओं की धारा बह पड़ी । अश्रुओं का विरह वेदना में बहुत महत्त्व है । विरह-वेदना बढ़ने पर आँसू झरने लग जाते हैं । इसीलिए सन्त आनन्दघन ने भी विरहिणी की सा अवस्था के चित्र चित्रित किए हैं । एक चित्र है
वेदन विरह अथाह है, पानी नव नेजा हो ।
हबीब तबीब है, टारै करक करेजा हो ॥ गाल हथेली लगाइ कै, सुरसिंधु हमेली हो । अंसुवन नीर बहाय कै, सींचू कर बेली हो । '
विरह की पीड़ा अथाह है । फलतः विरहिणी की अन्दर धँसी हुई आँखों से अश्रु रूप जल ऐसा लग रहा है, जैसे किसी गहरे में जल दिखाई देता है। ऐसा कौन सद्गुरुरूपी वैद्य या हकीम है जो उसके कलेजे में होनेवाली कसक को दूर कर सके। वर्तमान में सद्गुरुरूपी वैद्य हकीम की दुर्लभता के परिणामस्वरूप वह गाल पर हाथ रखकर प्रिय के विचारों में शोकमग्न होकर वेदना समुद्र में गोते खा रही है अथवा गाल पर हथेली रखकर नेत्रों में से अश्रुरूप नीर बहाकर मानो वह हस्तरूपी लता को सींच रही है । इसी साश्रु अवस्था का एक 'भादु काढुं मई कीयउ प्यारे, अंसुवन धार बहाय' किया है । इससे वे कहते हैं कि भाद्रपद में जब घनघोर वर्षा होती है और
ओर चित्र आनन्दघन ने
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वाले पद में भी चित्रित
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३२ ।
२. वही, पद ३० ।