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________________ २७८ आनन्दघन का रहस्यवाद साक्षात्कार करने के लिए आतुर हो उठती है और उस साक्षात्कार की अभिव्यक्ति के लिए वह रूपकों-प्रतीकों आदि साहित्यिक विधाओं का अवलम्बन खोज लेती है। यही कारण है कि आनन्दघन की अभिव्यक्ति के निर्झर से चेतन और समता सम्बन्धी प्रेम का भी सरस प्रभाव झरता हुआ दिखाई देता है । अतः उनमें रहस्यभावना की अभिव्यक्ति प्रियतम और प्रिया का रूप धारण कर लेती है । मध्यकालीन जैन एवं जैनेतर सन्तों, साधकों एवं कवियों की भाँति आनन्दघन ने भी चेतन और समता का तथा आत्मा और परमात्मा का प्रिय-प्रेमी के रूप में चित्रण किया है। प्रेम और विरह का सम्बन्ध ___ वास्तव में प्रेम और विरह का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। दोनों को एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। कवि उसमान ने प्रेम और विरह के सम्बन्ध के विषय में कहा है कि ___ जहाँ प्रेम तहँ विरहा जान हु।' जहाँ प्रेम है वहाँ विरह है । सन्त आनन्दघन ने भी प्रेम और विरह दोनों पर अनेक पदों और साखियों में अपने उद्गार व्यक्त किए हैं। प्रेम ही विरह का, वियोग का उत्स है। आत्मा के वियोग में होने वाली तीव्र वेदना को विरह कहा जाता है तो आत्मा से मिलन की अक्षुण्ण उत्कण्ठा प्रेम है । आनन्दघन की रचनाओं में इसी आध्यात्मिक प्रेम और विरह का चित्रांकन हुआ है । अतः उनमें वर्णित प्रेम-तत्त्व पर भी किंचित् प्रकाश डालना उपयुक्त होगा। अनन्य प्रेम प्रेम में अनन्यता नितान्त जरूरी है। आत्मानुभवी साधक को परमात्मप्रिय के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही न दे, तभी वह विशुद्ध प्रेम कहा जा सकता है। ऐसे साधक के लिए तो इस जगत् में केवल परमात्मा या शुद्धात्मा ही पति है। परमात्म-प्रिय को छोड़कर वह अन्य किसी की चाह नहीं करता है। प्रेम की अनन्यता का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण आनन्दघन के 'ऋषभ जिनेसर प्रीतम माहरो, और न चाहूँ रे कंत' स्तवन में स्पष्टतः देखा जा सकता है। न केवल आनन्दघन ने परमात्मा से प्रीति करने के १. कबीर साहब, संपा०, विवेकदास, पृ० ३८२ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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