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आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद अण्डरहिल ने तादात्म्य अथवा आत्म-साक्षात्कार की अवस्था को ही मिलन की अवस्था माना है। वस्तुतः अण्डरहिल और रहस्यवाद के भारतीय आचार्यों द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त अवस्थाओं में विशेष पार्थक्य प्रतीत नहीं होता।
रहस्यवादी साधक इन विभिन्न अवस्थाओं को क्रमशः पार कर कर्मों का नाश करके आत्म-समता से एकता का अनुभव करता है और जब दोनों में एकत्व स्थापित हो जाता है तब आत्मा ही परमात्मा बन जाता है। किन्तु यह स्थिति तभी सम्भव है जब कि आत्मा पूर्णतया विभाव-दशा अर्थात् ममता-माया आदि विकृत चेतन-दशाओं का परित्याग कर स्वभावदशा अर्थात् समता के घर में स्थित हो। ___ आनन्दघन ने अपने को केवल नोरस, शुष्क और दार्शनिक सिद्धान्तों तक ही सीमित न कर चेतन और समता के सम्बन्ध की भावात्मक अनुभूति को दाम्पत्य रूपकों के द्वारा सजीव एवं सरस रूप में अभिव्यंजित किया है । उन्होंने कतिपय पदों में पत्नी के लिए 'समता', 'सुमता','सुमति' और कुछ पदों में 'चेतना' (शुद्ध चेतना) शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु ये सभी शब्द लगभग एकार्थवाची हैं। __ जैनदर्शन में मुख्यरूप से चेतना के दो रूप माने गए हैं-शुद्ध चेतना और अशुद्ध या विकृत चेतना। अशुद्ध चेतना के भी दो भेद हैं-कर्म चेतना और कर्मफल चेतना । ज्ञान चेतना शद्ध चेतना है जो कि आत्मा का स्व-स्वभाव या स्व-लक्षण है जिसे आनन्दघन के शब्दों में 'समता' कहा गया है । अशुद्ध चेतना को अज्ञान चेतना भी कहते हैं। यह आत्मा को वैभाविक अवस्था है जिसे आनन्दघन ने ममता-माया-मोहिनी आदि नामों से अभिहित किया है। आनन्दघन के रहस्यवाद की अवस्थाओं के विवेचन में हम पत्नी के लिए 'समता' और पति (प्रियतम) के लिए 'चेतन' शब्द का ही उल्लेख करेंगे, क्योंकि 'चेतना' की अपेक्षा 'समता' शब्द उनके पदों में सर्वाधिक प्रयुक्त हुआ है ।
साधनात्मक रहस्य-भावना के द्वारा जब साधक की अन्तर्दृष्टि खुल जाती है तब उसकी समत्व रूप आत्मा साध्य रूप शुद्धात्म-तत्त्व से १. कबीर और जायसी का रहस्यवाद और तुलनात्मक विवेचन,
पृ० ३२८-२९ ।