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आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद
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रहस्यवाद की अवस्थाएँ
आनन्दघन ने अपने भावात्मक अनुभूतिमूलक रहस्यवाद की अभिव्यक्ति दाम्पत्य-प्रेम के माध्यम से की है । यह सत्य भी है कि आध्यात्मिकता के चरमोत्कर्ष को व्यक्तकरने के लिए रहस्यवादी साधक को रहस्यवाद की विविध अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। इनमें मुख्यतः सर्वप्रथम आत्मतत्त्व की जिज्ञासा की अवस्था है । अन्तर्मन में आत्न - जिज्ञासा उदित होने पर साधक आत्मानुभूति के लिए तड़प उठता है । फलतः उसे यह भेद-विज्ञान हो जाता है कि शरीर और आत्मा भिन्न है । ऐसा आत्मबोध होने पर उसे संसार के समस्त पदार्थ अनाकर्षक प्रतीत होते हैं । ऐसी स्थिति में साधक के अन्तर्मन में केवल एक ही आकांक्षा रहती है-अपने शुद्ध चेतन रूप प्रियतम से मिलन की । जब तक उसका प्रिय से मिलन नहीं होता है तब तक वह प्रिय के विरह में व्यथित रहता है । आनन्दघन में इस आत्मजिज्ञासा की अवस्था के दर्शन प्रचुर मात्रा में होते है । आत्मजिज्ञासा उनके रहस्यवाद का प्रमुख तत्त्व है । 'आनन्दघन के दार्शनिक आधार' नामक अध्याय में हमने 'आत्म-जिज्ञासा' के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक विचार किया है। यहाँ केवल यह बताना ही अभीष्ट है कि आत्मजिज्ञासा के पश्चात् ही विरह की अवस्था आती है । आनन्दघन में विरहावस्था के पर्याप्त दर्शन होते हैं । उन्होंने चेतन के वियोग में हृदय की जिस आकुलता और आतुरता का चित्रण किया है उसमें कहीं भी अकृत्रिमता नहीं आने पाई है । उनके विरह व्यथा के वर्णन अनूठे और स्वाभाविक हैं । उनके अधिकांश पदों में बेचैनी और विवशताओं से भरी हुई मार्मिक वेदना स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त हुई है । एक ओर, साधक प्रिय के विरह में अत्यधिक दुःखित रहता है, दूसरी ओर, वह उसे पाने के लिए विविध प्रकार की साधनाएँ करता है । यही आत्म-परिष्करण की अवस्था है | यह रहस्यवाद की दूसरी अवस्था है । इस अवस्था को रहस्यवाद का साधना-पक्ष कहा जा सकता है, जिसमें साधक योग-साधना के द्वारा परमतत्त्व से तादात्म्य स्थापित करने का प्रयास करता है । इसका विस्तृत विवेचन पिछले अध्याय में किया जा चुका है । साधना के द्वारा आत्मा के परिष्कृत होने पर प्रिय मिलन की अवस्था आती है । किन्तु इसमें साधक को परमतत्त्व रूप प्रिय के मिलन में अनेकविध विघ्न उपस्थित होने लगते हैं । इस स्थिति में वे समस्त विकृत भाव आते हैं