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________________ आनन्दघन का साधनात्मक रहस्यवाद २५९ चारित्र है।' समभावी साधक के जीवन में किसी के प्रति भी राग-द्वेष नहीं रहता, प्रत्युत उसकी दृष्टि सभी के प्रति समान रहती है। आनन्दघन ने भी समत्व (समता) की चर्चा यत्र-तत्र की है। वे स्वयं जैनागमानुसार साधुचर्या का पालन करते थे। उनके साधुत्व का आदर्श निम्नांकिन आगम वाक्य के अनुसार था : लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविये मरणे तहा। समोनिंदा पसंसासु तहा मणावमाणओ ॥२ इसी भाव को आनन्दघन ने अपने शब्दों में इस प्रकार अभिव्यक्त किया मान अपमान चित्त समगिणे, सम गिणे कनक पाषाण रे। वंदक निंदक सम गिणे, इश्यो होय तूं जाण रे ॥ सर्व जग जन्तु सम गिणे, गिणे तृण मणि भाव रे। मुक्ति संसार बेहु सम गिणे, मुणे भव-जलनिधि नाव रे ॥ कहा भी है कि श्रमणत्व का सार उपशम है। धम्मपद में भी कहा गया है कि जो समता का आचरण करता है, वह समण (श्रमण) कहलाता है।" सन्त आनन्दधन के अनुसार 'श्रमण' का लक्षण इस प्रकार है : आतमज्ञानी श्रमण कहावै, बीजा तो द्रव्य लिंगीरे। वस्तुगते जे वस्तु प्रकाशै, आनन्दधन मत संगीरे ॥३ जो आत्मज्ञान से युक्त है, वही सच्चा श्रमण कहलाता है। आत्म-ज्ञान से रहित साधु तो मात्र द्रव्य से वेश को धारण किए हुए हैं। वस्तुतः आनन्दघन न केवल श्रमण की चर्चा की है, अपितु उन्होंने श्रमण के सम्यक चारित्र के शुद्ध स्वरूप की ओर भी संकेत किया है। . १. चारित्तं समभावो । -पंचास्तिकाय, १०७ । २. उत्तराध्ययन सूत्र, १९।९१ । आनन्दघन ग्रन्थावली, शांतिनाथ जिन स्तवन । ४. उवसमसारं खु सामण्णं । -बृहत्कल्पसूत्र, १।३५ । ५. धम्मपद, २६।६। ६. आनन्दघन ग्रन्थावली, वासुपूज्य जिन स्तवन । له له »
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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