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आनन्दघन का रहस्यवाद
अमल कमल विकच भये भूतल, मंद विषै ससि कोर ।
आनन्दघन इक वल्लभ लागत, और न लाख करोर ॥३॥' मेरे हृदय में कैवल्य बीजरूप सम्यग्ज्ञान का सूर्य उदित हो गया है । इसके उदित होने से भ्रम-मिथ्यात्व रूप अंधकार-शक्ति का प्रबल जोर मन्द पड गया। सूर्य का प्रकाश फैलते ही जैसे पृथ्वी पर कमल खिल जाते हैं, वैसे ही सम्यग्ज्ञान रूप सूर्य के आलोकित हो जाने से हृदय-कमल विकसित हो गया और परिणामतः विषय-वासना, मिथ्यात्व रूप चन्द-किरणें मंद पड़ गईं।
सम्यक चारित्र
मोक्ष-प्राप्ति का एक साधन सम्यक् चारित्र भी है। सम्यक् चारित्र जैन-साधना की आधारशिला है। इसके बिना साधक का दर्शन और ज्ञान निरर्थक है ।२ कहा भी है-'ज्ञानस्य फलं विरतिः'-ज्ञान का फल है व्रत अर्थात् सम्यक् आचरण। निश्चय-दृष्टि से सम्यक् चारित्र का अर्थ है-स्व में रमण करना। आनन्दघन के अनुसार आत्म-स्वरूप में रमण करना ही सम्यक् चारित्र है। वस्तुतः उन्होंने योग-साधना को सम्यक् चारित्र के रूप में प्रकट किया है। उनकी दृष्टि में योग ही सम्यक् चारित्र है। आनन्दघन की आचार प्रधान रहस्य-साधना वास्तव में स्व-स्वरूप में लीनता और स्वस्वरूप में रमणता की साधना है। शास्त्रीय परिभाषा में इसे भावचारित्र कहा गया है। यही विशुद्ध संयम है।
प्राचीन जैनागम आचारांग सूत्र सम्यक चारित्र का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसमें मुख्यरूप से साधुजीवन के आचार संबन्धी नियमों पर विशद प्रकाश डाला गया है। जैनदर्शन का मुख्य उद्देश्य है-व्यक्ति को स्वावलम्बी बनाना। स्वावलम्बन के साधनाभूत सम्यक् चारित्र को जीवन में कैसे उतारा जाय, इसकी सुन्दर प्रेरणा आनन्दघन ने 'आशा औरन की क्या कीजै' पद में प्रदान की है। उनके अनुसार सम्यक् चारित्र की साधना का एक मात्र लक्ष्य है-स्व-स्वरूप की उपलब्धि । स्व-स्वरूप की उपलब्धि समता या समभाव से ही हो सकती है, क्योंकि समभाव ही
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ७३ । २. षड्प्राभृत, ६५ एवं नियमसार, १३७-१३९ ।