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________________ आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार है । अत: इस दृष्टि से भी थोड़ा-सा विचार कर लेना उचित होगा । मिथ्यात्व, अविरति आदि ऊपर कहे गए बन्ध-हेतुओं को संक्षेप में यदि कहा जाय तो कषाय ही एक मात्र बन्धन का मूल कारण प्रतीत होता है।' इसीलिए कहा गया है 'कषायमुक्ति किल मुक्तिरेव । ' २ – कपायों से मुक्ति ही वास्तव में मुक्ति है । वैसे तो कषाय के अनेक भेद-प्रभेद हैं, किन्तु संक्षेप में कषाय के दो रूप हैं- राग और द्वेष | जैनागमों में स्थूल रूप से कषाय के चार भेद बताए गए हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमें भी माया और लोभ का समावेश राग (आसक्ति) में और क्रोध तथा मान का समावेश द्वेष में किया गया है ।' अति संक्षेप में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि राग-द्वेष भी मोह के ही भेद हैं। जैसा कि उत्तराsara में कहा गया है कि राग और द्वेष, ये दो कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है ।" इसिभासियाई में भी कहा है- 'मोह मूलानि १. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्युद्गलानान्ते । तत्वार्थसूत्र, ८।१ । २. ३. उपदेश तरंगिणी, प्रथम तरंग - तप उपदेश, श्लो० ८ । कोहं च माणं च तहेव मायं । लोभं चउत्थं अज्झत्थ- दोसा ॥ — सूत्रकृतांगसूत्र, ६।२६ । (ख) स्थानांग, ४।१।२५१ । (ग) प्रज्ञापना, २३।१।२९० । ४. दोहि ठाणेहि पाप कम्मा यंत्रति ... रागे दुविहे पण माणे य । ५. 'रागेण य दोसेण य । 'माना य लोभेय । दोसे दुविहे " -- प्रज्ञापना, २३ । रागो य दोसो विय कम्मबीयं । - स्थानांगसूत्र, २|३ | (ब) जीवेण भंते, णाणावरणिज्जं कम्मं कतिहि ठाणेहि बंधति ? गोयमा । दोहि ठाणेहिं, तं जहा - रागेण य दोसेण य । रागे दुविहे पण्णत्तं तं जहा - माया य लोभे य । दो दुविहे पण्णत्तं तं जहा – कोहे य माणे य । 1 कम्मं च मोहप्पभवं वयंति ॥ २३३ - उत्तराध्ययन, ३२|७ | कोहे य
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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