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________________ रहस्यवाद : एक परिचय (१) भावानात्मक रहस्यवाद, (२) साधानात्मक रहस्यवाद ।' १९ वस्तुतः आध्यात्मिक क्षेत्र में रहस्यवाद के ये दो ही रूप अधिक समीचीन प्रतीत होते हैं । भावनात्मक और साधनात्मक रहस्यवाद के अन्तर्गत आध्यात्मिक- आत्मिक दार्शनिक रहस्यवाद का भी समावेश हो जाता है । परमतत्त्व रूप साध्य को प्राप्त करने में ये दो रूप ही सहायक होते हैं । साधना और भावना के द्वारा ही साधक दृष्ट तत्त्व में अदृष्ट तत्त्व की परम अनुभूति करता है । अतः प्रस्तुत प्रबन्ध में आध्यात्मिक सन्त आनन्दघन के रहस्यवाद के सम्बन्ध में हम मूलतः दो रूपों की विवेचना करेंगे, क्योंकि उनकी रचनाओं में मुख्यतः साधनात्मक और भावनात्मक (भावात्मक अनुभूतिमूलक) रहस्यवाद ही पाया जाता है । रहस्यवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि सन्त आनन्दघन के रहस्यवाद की विवेचना करने के पूर्व रहस्यवाद उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से परिचित होना नितान्त आवश्यक है जिसे हिन्दी के मध्यकालीन सन्त- साहित्य में प्रवहमान रहस्य -साधना की उद्गम स्थली कही जा सकती है । आदिकाल से मानव-मन की जिज्ञासा दृश्य पदार्थों से सन्तुष्ट होती हुई नहीं जान पड़ती। वह कुछ और जानना, पाना चाहता है । भारत में रहस्यमय परमतत्त्व की खोज प्राचीनकाल से होती रही है और इस रूप रहस्य - भावना के बीज वाङमय में उपलब्ध हैं । भारत भूमि में परमतत्त्व का साक्षात्कार करने वाले अनेक ऋषि महर्षि, रहस्यद्रष्टा सन्त-साधक हो गये हैं जिन्होंने उस रहस्यानुभूति का परम आस्वादन किया है । रहस्य -द्रष्टाओं की अनुभूतियां ही जब भाषा में अभिव्यक्त होती हैं, तब वे रहस्यवाद कहलाती हैं । - सहज ही इतना जिज्ञासु है, कि वह यह जानना चाहता है। कि आत्मा क्या है, जगत् क्या है और इन दोनों के अतिरिक्त अतीन्द्रियजगत् का वह परमतत्त्व क्या है, जिसे परमात्मा या परमब्रह्म कहा जाता है ? यह सत्य है कि सामान्यतः जो दृश्य तत्त्व हैं, उनके प्रति जिज्ञासा १. कबीर ग्रन्थावली, डा० भगवत् स्वरूप मिश्र, पृ० ११ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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