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आनन्दघन का रहस्यवाद १. स्वाभाविक एवं वैभाविक अवस्था के रूप में, २. बहिरात्म, अन्तरात्म तथा परमात्म-अवस्था के रूप में,
३. निद्रा, स्वप्न, जाग्रत एवं तुरीयावस्था के रूप में। .. न केवल जैनदर्शन में प्रत्युत जैनेतर दर्शनों में भी आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं पर पर्याप्त विचार किया गया है । प्रात्मा की स्वाभाविक एवं वैमाविक अवस्थाएँ
मानव-जीवन संघर्षमय है। संघर्ष आन्तरिक और बाह्य दोनों स्तर पर होता है । आन्तरिक संघर्ष के लिए आत्मा की वैभाविक अवस्थाएँ ही उत्तरदायी हैं। निश्चय-नय की दृष्टि से तो आत्मा आनन्द-स्वरूप है। उसमें किसी प्रकार का द्वन्द्व या संघर्ष नहीं है । यद्यपि व्यवहार-नय की दृष्टि से स्वाभाविक एवं वैभाविक अवस्थाओं का संघर्ष अनादिकाल से चल रहा है और यह तब तक चलता रहेगा, जब तक कि विभाव का क्षय नहीं हो जाता। विभाव-दशा के नष्ट होने पर ही स्वभाव-दशा प्रकट होती है। इस सम्बन्ध में आनन्दघन का कथन है कि विभावरूपी रात्रि के विलीन होने पर ही स्वभावरूपी सूर्य उदित होगा और तब मानों आनन्दपुंज आत्मा सम्यक् प्रकार से समता से मिल जाएगी।
जैन-धर्म में आत्मा की मुख्यतः दो अवस्थाएँ मानी गई हैं-स्वभाव और विभाव। यह बात अलग है कि किसी आत्मा में विभाव (मलिनता) का अंश अधिक है तो किसी में कम । बहिरात्मा विभाव-दशा में घिरा रहता है तो अन्तरात्मा स्वभाव-दशा में रमण करता है। मुक्तात्मा या परमात्मा तो सदैव निज स्वभाव में स्थित रहता है। इस प्रकार, स्वभाव और विभाव दोनों का जीवन में संघर्ष अनवरत चल रहा है और इस संघर्ष को समाप्त करना ही मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है ।
भगवद्गीता में भी इसकी कुछ झलक मिलती है। गीताकार ने स्वाभाविक एवं वैभाविक अवस्था को क्रमशःस्वधर्म और परधर्म के रूप में २. रात विभाव विलात ही, उदित सुभाव सुभानु । समता साच मतइ मिलै, आनन्दघन मानु ।
-आनन्दघन ग्रन्थावली , पद ३४ ।