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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
प्रात्म-ज्ञान की जिज्ञासा
आत्मतत्त्व की जिज्ञासा अध्यात्मवादी और रहस्यवादी दर्शन की आधार भूमि है। रहस्यवाद का विशाल प्रासाद आत्मानुभूति की अभीप्सा पर ही खड़ा हुआ है। आत्माननति की यह अभीप्सा या आत्मतत्त्व की उत्कट जिज्ञासा आध्यात्मिक सन्त आनन्दधन की इन पंक्तियों में अभिव्यक्त
आतम तत क्यूं जाणूं जगतगुरु, एह विचार मुझ कहियै ।
आतम तत जाण्या विण निरमल, चित्त समाधि नवि लहियै ॥' आनन्दघन आत्मज्ञान की तीव्र अभीप्सा लिए हुए कहते हैं कि प्रभु! मुझे आत्मतत्त्व का ज्ञान किस प्रकार प्राप्त हो, यह उपाय बतलाइए, क्योंकि जब तक आत्मतत्त्व का ज्ञान नहीं होगा, तब तक चित्त में निराकुलता नही आएगी, मन निर्मल और निर्विकार नहीं होगा और समाधि की उपलब्धि सम्भव नहीं होगी। इसी तरह अरजिन स्तवन में भी उन्होंने स्व-स्वरूप की जिज्ञासा प्रकट की है। आत्म के निज स्वरूप को जाननेसमझने की दृष्टि से वे कहते हैं :
धरम परम अरहनाथ नो, किम जाणुं भगवंत रे।
स्व पर समय समझाविए, महिमावंत महन्त रे ॥२ सामान्यतः संसार में अनेकविध धर्म प्रचलित हैं, लेकिन प्रश्न यह है कि यथार्थ धर्म कौन-सा है ? ऐसा कौन-सा धर्म है जो संसार-चक्र से मुक्ति दिलानेवाला हो, स्व-स्वरूप की उपलब्धि करानेवाला हो। इस दृष्टि से आनन्दघन उक्त पंक्तियों में परमात्मा के समक्ष यह जिज्ञासा व्यक्त करते हैं कि मुझे यह बताना कि आत्मधर्म को कैसे पहचाना जा सकता है, आत्मा का अपना धर्म या स्व-स्वभाव क्या है और उसका परधर्म अर्थात् विभाव दशा क्या है ?
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, अरजिन स्तवन । २. वही।