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________________ १६० आनन्दघन का रहस्यवाद संसार-समुद्र से पार पहुँचाने का कार्य करता है।' अध्यात्मोपनिषद् में भी कहा गया है कि विशुद्ध आत्मानुभव के बिना अतीन्द्रिय परम ब्रह्म को शास्त्रों की सैकड़ों युक्तियों से भी कदापि नहीं जाना जा सकता। वस्तुतः शास्त्र तो मात्र आत्मा का संकेत कर सकता है, लेकिन आत्मानुभूति नहीं करा सकता। कविवर बनारसीदास ने भी कहा है अनुभव चिंतामणि रतन, अनुभव है रसकूप । . अनुभव मारग मोख को, अनुभव मोख सरूप ॥ अनुभव परम से प्रीति जोड़ने वाला रसायन है, अमृत का कौर है और इसके समान और कोई धर्म नहीं है, ऐसा बनारसीदास जी एक सवैया में कहते हैं अनुभौ के रस कौं रसायन कहत जग, अनुभौ कौ अभ्यास यह तीरथ की ठौर है। अनुभौ की जो रसा कहावै सोई पोरसा सु, अनुभौ अघोरसा सौं ऊरध की दौर है ।। अनुभौ की केलि यहै कामधेनु चित्रावेलि, अनुभौ को स्वाद पंच अमृत कौ कौर है। अनुभौ करम तोरै परम सौं प्रीति जोरै, अनुभौ समान न धरम कोऊ और है ॥ अनुभव की ऐसी महत्ता के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सन्त आनन्दघन के रहस्यवादी दर्शन में एक ही प्रमाण पर अत्यधिक बल दिया गया है और वह है 'प्रत्यक्ष अनुभव' जिसे आनन्दघन के शब्दों में, आत्मानुभव अथवा अपरोक्षानुभूति कहा गया है। जैनदर्शन में भी आत्मासाक्षात्कार के लिए आत्म-प्रत्यक्ष प्रमाण को ही माना गया है, इन्द्रियप्रत्यक्ष को नहीं। इसीलिए जैन दर्शन में प्रत्यक्ष के दो भेद किए गए हैं : १. ज्ञानसार २६ । २. अतीन्द्रियं परं ब्रह्म विशुद्धानुभवं विना। शास्त्र युक्ति शतेनापि नैव गम्यं कदाचन् । -अध्यात्मोपनिषद्, द्वितीय अधिकार २१ । ३. अध्यात्मोपनिषद्, द्वितीय अविकार २। ४. समयसार नाटक, उत्थानिका।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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