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रहस्यवाद : एक परिचय
११ संज्ञा देकर रह जाता है। लामा गोविन्द के मतानुसार भी "(रहस्यवाद) असीम तथा जो कुछ भी अस्तित्व में है उस समग्र की विश्वात्मक एकता की प्रातिभ अनुभूति है और इसके अन्तर्गत समग्र चेतना (अथवा यदि कहना चाहें तो) समूचा जीवन तत्त्व तक आ जाता है। जबकि रूडोल्फ ओट्टो के अनुसार 'रहस्यवाद सीमित में असीम को धारण करने के लिए है। वे उसे 'अनन्त का रहस्यवाद' कहते हैं।'
रहस्यवाद को मनोवृत्ति के रूप में व्यक्त करने वाले वान हार्टमैन का कथन है-"रहस्यवाद चेतना का वह तृप्तिमय बोध है जिसमें विचार, भाव एवं इच्छा (थाट फीलिंग ऐंड विल) का अन्त हो जाता है तथा जहाँ अचेतनता (पूर्ण निमग्नता) से ही उसकी चेतना जाग्रत होती है।" ३ इसी तरह ई० केयर्ड (E. Caird) रहस्यवाद को चित्त की मनोवृत्ति-विशेष कहते हैं-"रहस्यवाद अपने चित्त की वह विशेष मनोवृत्ति है जिसके बन जाने पर अन्य सारे सम्बन्ध ईश्वर के प्रति आत्मा के सम्बन्ध के अन्तर्गत जाकर विलीन हो जाते हैं। केयर्ड की इस परिभाषा की अपेक्षा आर० डी० रानाडे ने इसकी अधिक समीचीन व्याख्या की है। उनके अनुसार मात्र ईश्वर के साथ ही सम्बन्ध नहीं होता है, अपितु आनन्द का भी अनुभव होता है। 1. The intuitive experience of the infinity and the all
embracing oneness of all that is, of all consciousness of all life or however, we may call it. Foundation of Tibaten Mysticism ; of Lama Anagarika Govind p. 77. Varieties of Religious Experiences, p.38 (Rider Co., London, 1959)
Mysticism, East and West, Rudolf otto, p. 95. 3. Von Hartman-"Mysticism is the feeling of the
consciousness with a content (feeling, thought and desire) by an involuntary emergence of the same out of the unconsciousness." It (Mysticism) is that of the mind in which all other relations are swallowed in the relations of the soul to God. Quoted in 'Mysticism in Religion' by Dr. W. R. Inge, p. 25.
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