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आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
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होकर तारों को गिन-गिन कर निकाल रही है। आनन्दघन कहते हैं कि इस शरीर रूप चरखे में तो 'सोऽहं' रूप 'मैं' का आत्मतत्त्व है। किन्तु उस 'सोऽहं' ('वही मैं हूँ') रूप आत्मतत्त्व को सभी नहीं देख पाते हैं या उसे भाषा में अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं। जो साधक आनन्दघन रूप इस ‘सोऽहं' की विभूति को जान लेता है, अनुभव कर लेता है, उसका इस संसार से आवागमन का चक्र मिट जाता है। इस रहस्यात्मक उक्ति में आनन्दघन ने साधना और ज्ञान के प्रतीकों का प्रयोग किया है।
इस प्रकार, आनन्दघन के 'जगत गुरू मेरा, मैं जगत का चेला'२ तथा 'देख्यो एक अपूरब बेला। आप ही बाजी आप बाजीगर, आप गुरू आप चेला। आदि पदों में भी रहस्यात्मक-पद्धति के सुन्दर उदाहरण देखे जा सकते हैं। उनकी ऐसी रहस्यात्मक एवं दार्शनिक उक्तियों का अर्थ अनुमान से अवश्य लगाया जा सकता है, किन्तु उनके वास्तविक अभिप्राय तक पहुंच पाना सबके वश को बात नहीं है। कबीर की रहस्यात्मक उक्तियों के साथ आनन्दघन की रहस्यात्मक उक्तियों की तुलना १. सुण चरखेवाली चरखो बोले तेरो हुं हुं हैं।
जल में जाया थल में उपना, बस गया नगर में आप । एक अचंभा ऐसा देखा, बेटी जाया बाप रे ॥ १ ॥ भाव भगति की रूई मंगाई, सुरत पीजावण चाली। ज्ञान पीजारो पीजण बैठो, तांत पकड़ झण काई रे ॥२॥ बावल मेरो व्याव कोजो है, अण जाण्यो वर आप। अण जाण्यो वर नहि मिले तो, बेटी जाया बाप रे ॥ ३ ॥ सासू मरे जो नणद मरे जो, परण्यो भी मर जाय ।। एक बुढीओ नहि मरे तो, तिण चरखो दीजो बताय ।। ४॥ चरखो मारो रंग रंगीलो, पुणी हे गुलजार । कातनवाली छैल छबीली, गीन गीन काढे तार रे ॥ ५ ॥ इणी चरखा में हुं हुं लिख्यौ है, हुं हुं लिखे नहीं कोय । आनन्दघन या लिखे विभुति, आवागमन नहीं होय रे ॥ ६ ॥
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ११४ । २. वही, पद ६ । ३. वही, पद ५५ ।