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आनन्दघन की विवेचन-पद्धति
१०९. केवल ज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त हो जाएगी। जो व्यक्ति प्रमुख शत्रुओं से संघर्ष न कर अन्य से संघर्ष करता है वह तो मूर्ख ही है। परन्तु जो वास्तव में शुरवीर हैं वे तो राग-द्वेष रूप सम्पूर्ण शत्रुओं को पराजित कर देते हैं। आपके मूल शत्रु राग-द्वेष ही हैं। अतः आप इन पर विजय प्राप्त कर लीजिए।
समता नारी द्वारा बार-बार मोहराज से युद्ध करने की प्रेरणा पाकर चेतनराज युद्ध करने के लिए तैयार हो जाते हैं। वे युद्ध के पूर्व अपने मस्तक पर निज-स्वरूप रूपी अनुपम मुकुट पहनते हैं और स्व-स्वरूपप्राप्ति के लिए प्रखर रुचि रूप तेज खड्ग ग्रहण करते हैं। फिर 'देहं वा पातयामि कार्य वा साधयामि' का संकल्प लेकर शूरवीर का बाना धारण कर, त्याग और ब्रह्मचर्य रूप कवच पहन कर तीव्र भावना रूप चोला डालकर मोहराज से उन्होंने इस प्रकार युद्ध किया कि प्रारम्भ में ही उसे जड़ मूल से छिन्न-भिन्न कर दिया। यह देख अनुभवी पण्डितों के मुख से प्रशंसात्मक शब्द निकल पड़े। मोहराज का समूल उन्मूलन कर विजय दुंदुभि बजवाकर चेतन निज-स्वरूप रूपी मुक्ति नगर में आ गए। यहाँ आनन्दघन ने चेतन को शूरवीर योद्धा के रूप में चित्रित किया है। उक्त पंक्तियों में चेतन के वीरतापूर्ण कार्य-कलापों की सुन्दर झाँकी मिलती है। वह शत्रु पक्ष पर कठोर प्रहार करता है। यहाँ आनन्दघन ने शरीर रूपी नगर के सम्राट चेतन और संसार रूप समुद्र के सम्राट् मोह के बीच द्वन्द्व युद्ध कराकर मोह को पराजित और चेतन को विजयी घोषित किया है। __ इस प्रकार, समता नारी ने प्रयत्नपूर्वक अपने पति चेतन का, मोहिनी माया-ममता और उसके समूचे परिवार के साथ चिरकालीन सम्बन्ध पूर्णतः छुड़ा दिया और प्रियतम से परमार्थिक प्रीति जोड़कर उन्हें आनन्दघन का रूप मुक्ति नगरी का राज्य दे दिया। जैसा कि कहा है :
आतम अनुभौ रीति वरीरी। मोर बनाइ निज रूप अनुपम, तीछन रूचि कर तेग करी री॥ टोप सनाह सूर कशे बानो, इकतारी चोरी पहरी री। सत्ताथल मोह बिडारत, ए ए सुरजन मुह निसरी री ।। केवल कमला अपछर सुदर, गान करै रस रंग भरी री। जीति निसाण बजाइ बिराजै, आनन्दघन सरवंग धरी री॥
-आनन्दघन, ग्रन्थावली, पद ५३ ।