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________________ आनन्दघन का रहस्यवाद ! देते हुए कहता है कि हे सुमते मैं विश्वासपूर्वक कहता हूँ कि मेरी ว ही है, फिर क्यों डर रही है ? ममता का और मेरा सम्बन्ध आज का नहीं, प्रत्युत चिरकाल का है । इसलिए अब सम्बन्ध विच्छेद होने पर ममता एक दो दिन के लिए तुझसे और मुझसे व्यर्थ ही झगड़ा करेगी, . किन्तु इससे तुझे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । यह सुनकर समता कहती है कि इतना तो मैं भी जानती हूँ कि पीतल पर बहुमूल्य रत्न नहीं जड़ा जाता, उसी तरह यह भी सत्य है कि ममता के संग से आपका उत्थान नहीं हो सकता । जब आपको निज स्वरूप की स्मृति होगी तब मेरी संगति की आपको आवश्यकता लगेगी । ' १०८ इस प्रकार, समता अपने पति को निज स्वरूप पहचानने, निज घर में आने का तथा अनात्म भाव रूपी मोह-माया-ममता आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का सन्देश देते-देते नहीं थकती । वह मोहराज की सेना - माया, ममता आदि से युद्ध करने के लिए अपने पति चेतन को उत्साहित एवं प्रेरित करती हुई कहती है कि हे चतुर चेतन ! आप अनन्त शक्तिशाली हैं । मोहराज की सेना रूपी मैदान को क्यों नहीं जीत लेते ? तीक्ष्ण रुचि रूपी तलवार के द्वारा मोहरूपी शत्रु को परास्त कर दीजिए। यदि आप द्रुत गति से आक्रमण करेंगे तो मोह को परास्त होने में दो घड़ी भी नहीं लगेगी और आपको समस्त उपाधियों से रहित १. २. मेरी तु मेरी तु काहे डरै री । कहे चेतन समता सुनि आखर, और देढ़ दिन झूठी लरै री । ऐसी तो हू जानु निह, री री पर न जराव जरै री । जब अपनो पद आप संभारत, तब तैरे पर संग परै री ॥ — आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ४२ । चेतन चतुर चौगान लरी री । जीति लै मोहराज को ल्हसकर, मुसकरि छाँडि अनादि धरी री ॥ नांगी काढिलाइले दुसमण, लागै काची दोइ घरी री । अचल अबाधित केवल मुनसफ, पावै शिव दरगाह भरी री । और लराई, लरै सौ बौरा, सूर पछाडै भाव अरी री । धरम परम कहा वुझे औरे, आनन्दघन पद पकरी री ॥ वही, पद ५२ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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