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________________ ४० अनुष्ठान होता है वह वचनानुष्ठान कहा जाता है तथा उसके परिरणामस्वरूप प्रसंगानुष्ठान की प्राप्ति होती है ऐसा क्रम है । असगानुष्ठान निर्विकल्प चिन्मात्र समाधि रूप है। वह ज्ञान क्रिया की प्रभेद भूमिका रूप है क्योकि वह शुद्धउपयोग तथा शुद्धवीर्योल्लास के साथ तादात्म्य भाव वो धारण करता है । अत्यन्त प्रीति पूर्वक होने वाला प्रीतिग्रनुष्ठान, ग्रादर बहुमान पूर्वक होने वाला भक्तिप्रनुष्ठान, श्रागमानुसारी सम्पन्न होने वाला वचनानुष्ठान तथा अतिशय अभ्यास से श्रागम की अपेक्षा बिना सहजभाव से ही सम्पन्न होने वाला असगानुष्ठान होता है । असगानुष्ठान में योग तथा उपयोग की शुद्धि उसके प्रकर्ष पर्यन्त पहुँची हुई होती है । षड्जीवनिकायो के हित की बुद्धि से उत्पन्न हुआ श्री अरिहंत भगवन्तो पर प्रीति का परिणाम शुद्ध तथा स्थिर होता है । षड्जीव निकाय के हित का परिणाम सर्व प्रथम भवभीति से उत्पन्न होता है । उसके पश्चात् वह प्रात्मौपम्यभाव से उत्पन्न होता है । श्री हितो की भक्ति द्रव्य तथा भाव दोनो से होती है । उसमे भावभक्ति प्रज्ञापालन स्वरूप है अत भावभक्ति का वीज आज्ञा पालन का अध्यवसाय है । यही अध्यवसाय भावनमस्कार की प्राप्ति करवाता है । भाव नमस्कार अन्त मे सर्व पाप वृत्तियो का नाशकर परम मगलपद की प्राप्ति करवाता है । नमस्कार द्वारा ध्यानसिदिध श्राज्ञा का आराधन मोक्ष के लिए होता है तथा श्राज्ञा का विराधन मसार के लिए होता है। प्रभु की श्राज्ञा प्रसवो के त्याग की तथा सवरो के स्वीकार की है। जिन जिन क्रियाओ से आत्मा मे कर्म श्राता है वह प्रास्रव है तथा आने वाले कर्म जिससे रुकें वह सवर है ।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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