________________
६२
प्रतिमादि तथा सूत्र स्वाध्यायादि के आलम्बन विना नही होता । अत तत्त्व की प्राप्ति मे सूत्र -स्वाध्याय तथा श्री जिन प्रतिमादि का आलम्बन भी प्रकृष्ट उपकारक है इस हेतु 'श्री उपमिति भव- प्रपच कथा' मे कहा गया है किमूलोत्तरगुणाः सर्वे, सर्वा चेयं वहिष्क्रिया । मुनीनां श्रावकारणां च ध्यानयोगार्थमीरिता ||२|| अर्थ-साधुओ एव श्रावको के मूल उत्तरगुरण तथा समस्त बाह्य क्रियाएँ ध्यानयोग के लिए वरिणत की गई है ।
नवकार में भगवद्भक्ति
नवकार मे केवल वीरपूजा नही, परन्तु भगवद्भक्ति भी भरी हुई है । समस्त जीवलोक का कल्याण करना श्री परमेष्ठि भगवान का स्वभाव रूप बन गया है । उनका यह स्वभाव उनके नाम, प्रकृति, द्रव्य एवं भाव इन चारो निक्षेपो से प्राविर्भूत होता है | नवकार के प्रथम पाँच पदो मे स्थित पाँचो परमेष्ठि चारों निक्षेपो से तीनो काल मे एव चौदहो लोको मे अपने स्वभाव से ही सब का कल्याण सम्पादन कर रहे हैं । अन्तिम चार पदो मे उन श्री को नमस्कार करने वाले चारो गति के सम्यग्दृष्टि एव मार्गानुसारी जीव, 'ध्याता - ध्येय स्वरूप बनें' इस न्याय के श्रागम से अर्थात् ज्ञानोपयोग से भावनिक्षेप मे श्री पच परमेष्ठि रूप वनकर सकल पाप के विध्वसक तथा सकल मगल के उत्पादक बनते हैं । जो ग्रागम से एव भावनिक्षेप से श्री अहित आदि स्वयं ही परमेष्ठि है एव श्रागम से भावनिक्षेप द्वारा उन श्री के ज्ञाता एव उन श्री के ध्यान मे उपयोगवान ध्याता भी हैं । नमस्कार की चूलिका मिलकर पाँच पद महाश्रुतस्कंध रूप है । इसका अर्थ यह हुआ कि नमस्कार्य, नमस्कर्ता एव नमस्कार्य मे हृदय मे ज्ञान तथा करुगा के विपयभूत समस्त जीवलोक श्री नमस्कार महामत्र रूपी श्रुतस्कघ मे समाविष्ट हो जाते है । चौदह राज लोक तथा सचराचर सृष्टि को प्रावृत करता श्री नमस्कार महामंत्र सर्व व्यापक है । समग्र विश्व के साथ विवेकपूर्वक एकतानता तथा एकरसता समायोजित करने हेतु सरल से सरल साधन अर्थभावना पूर्वक होता श्री नमस्कार महामंत्र का स्मरण
-