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होने से साधुपन भी है। इस प्रकार पाँचो परमेष्ठिमय होने से श्री श्ररिहत की स्तुति श्री पचपरमेष्ठि की स्तुति रूप है एवं श्री पचपरमेष्ठि की स्तुति श्री अरिहत की स्तुति रूप है । श्री हित मे पचपरमेष्ठि तथा श्री पचपरमेष्ठि मे अरिहत निहित है ।
दूसरी प्रकार से श्री अरिहत विश्व की प्रात्मा है । समग्र विश्व उनकी श्रात्मा मे ज्ञानरूप, करुरणा रूप, मंत्री रूप, प्रमोद रूप एव माध्यस्थ्य रूप मे स्थित है, प्रतिष्ठित है । विश्व श्री अहितरूप है क्योकि श्री अरिहतो की करुणा का विपय है, श्री हितो के ज्ञान का ज्ञेय है तथा श्री अहितो के उपदेश अर्थात् प्राज्ञा का श्रालम्बन अथवा क्षेत्र है । इस प्रकार श्री श्ररिहत समग्र विश्वमय तथा समग्र विश्व श्री ग्रहितमय है अर्थात् श्री पचपरमेष्ठि समग्र विश्वमय तथा समग्र विश्व श्री पचपरमेष्ठिमय है |
श्री पंचपरमेष्ठि का ध्यान
श्री पचपरमेष्ठि का ध्यान जब शब्द, अर्थ तथा ज्ञान से सकी होता है तब वह सविकल्प समाधि का कारण बनता है । इस प्रकार जब यह ध्यान देश, काल, जाति श्रादि से युक्त होता है तब भी यह सविकल्प समाधि बनता है । जब देश, काल, जाति श्रादि से शून्य केवल अर्थ मात्र निर्भास बनता है तब यदि वह स्थूल विपयक हो तो निर्विचार समाधि रूप वनता है ऐसा श्री पातजल योग दर्शन में वर्णित है ।
स्थूल याने मनुष्यादि पर्यायरूप एवं सूक्ष्म याने शुद्ध श्रात्मस्वरूप समझना चाहिए । श्री जैन दर्शनानुसार पर्याययुक्त स्थूल सूक्ष्म द्रव्य का ध्यान सवितर्क - सविचार तथा पर्याय विनिर्मुक्त स्थूल सूक्ष्म द्रव्य का ध्यान निर्वितर्क निर्विचार समाधि है अथवा अन्तरात्मा मे परमात्मा के गुणों का अभेद आरोप ( समापत्ति ) ही ध्यान का फल है तथा वह ससर्गारोपसे होता है । ससर्गारोप याने जिसके तात्त्विक अनन्त गुरण आविर्भूत है उन सिद्धात्मानो के गुणो के विषय मे अन्तरात्मा का एकाग्र उपयोग | वह चचल चित्त वाले को इन्द्रिय निग्रह बिना नही होता है । इन्द्रियो का निग्रह श्री जिन