________________
जैन-विद्या शोध के युग-पुरोधा
डॉ. नंदलाल जैन, रीवा, म. प्र.
मेरी विचारधारा को वैज्ञानिक रूप देने में मेरा अध्ययन क्षेत्र तो उत्तरदायी है ही, पर उसमें अनेक संतों एवं विद्वानों का भी योगदान है। इनमें अधिकांश आधुनिक प्राच्य या पाश्चात्य विद्या के न तो स्नातक ही थे और न विभिन्न कोटि के अध्यापक, पर वे जैन विद्या के गंभीर उपासक एवं शोधक व्याख्याता अवश्य रहे। इनमें पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार 'युगवीर' (1877-1968) भी एक हैं। ये जैन (दि.) पंडित परम्परा के द्वितीय युग (1800-1900 ई.) के विद्वान हैं जिनमें से अधिकांश ने स्वयमेव जैन धर्म-दर्शन का अध्ययन ही नहीं किया, अपितु वे समाज पर आश्रित भी नहीं रहे। इन्होंने विकृत धार्मिक मान्यताओं एवं कुरीतियों के प्रति समाज में जागरूकता उत्पन्न की, धार्मिक शिक्षा एवं सिद्धांतों का प्रचार किया एवं अनेक संस्थायें स्थापित की। इनमें ब्र. शीतलप्रसाद, बैरिस्टर चंपतराय, जे.एन. जैनी, कामताप्रसाद जैन आदि ने तो विदेशों में भी धर्म प्रचारार्थ भ्रमण किया एवं अंग्रेजी में जैन साहित्य के अनुवाद एवं नव-साहित्य सर्जन द्वारा उसे पश्चिम में प्रसारित किया। इसी पीढ़ी के मुख्तार सा. तथा पं. नाथूराम जी प्रेमी (1881-1960) ने (दिगम्बर) जैन विद्याओं में उदात्त दृष्टि से शोधकार्य का श्रीगणेश किया और अनेक शोधपूर्ण लेखों तथा ग्रंथों के द्वारा जैनाचार्यों, जैन इतिहास एवं मान्यताओंके विषय में जन-साधारण का ध्यान आकृष्ट किया। इस युगल को ही आधुनिक जैन-विधा शोध का युग-पुरोधा एवं प्रेरक माना जा सकता है। अपने युग के विद्वानों में ये दोनों ही विद्वान् सर्वाधिक दीर्घजीवी रहे। इससे इनके जीवन की साधना पर सात्विकता का अनुमान लगाया जा सकता है।
जैन पंडित/शिक्षक परंपरा के तीसरे युग में इनके गंभीर अध्ययन एवं शोध की टकर के कुछ ही विद्वान् हुए हैं। यह युगल परम्परा-संवर्धक एवं उन्नायक बनी। इसीलिये इन्हें परंपरापालकों के अनेक प्रकार के विरोष का