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Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugveer" Personality and Achievements
और उनसे नौकरी हेतु निवेदन किया, इससे पूर्व स्व. पंडित जी से कभी भी भेंट नहीं हुई थी, पर वे हमारी पारिवारिक स्थिति से भली भांति परिचित थे। उसी समय आदरणीय कोठिया जी छुट्टियों में बीना आये हुए थे। स्व. पंडित जी ने उनसे मेरी नियुक्ति की अनुमति मंगा ली । 'सूरा क्या चाहे ? दो आंखें' माँ बड़ी रोई - धोई और बोली बेटा यहां की पाठशाला में भी जगह है और लोग तुम्हें बुला रहे हैं, अतः यहीं रह जाओ पर मैंने बड़ी बेरहमी से अपनी ममतामयी मां को कहा कि मां! यहां तो (बीना) सोना भी बरसे तो नहीं रहूंगा और बाहर मुझे भीख भी मांगना पड़े तो स्वीकार कर लूंगा। बेचारी मां निरुत्तर थी, निपट अकेली थी, विधवा थी, बड़े बेटे को खो चुकी थी, अतः उसकी मर्म व्यथा वह ही समझ रही थी, पर परम पूज्य स्व. मामाजी के (पं. मनोहरलाल जी बरुआसागर बाद में कुरवाई) समझाने पर मौन रह गई और मैं अपना बिस्तर बोरिया बांधकर पठानकोट एक्सप्रेस में शाम 6 बजे बीना से सरसावा के लिए चल दिया। नई-नई उमर थी कुछ देखा भाला था नहीं और अंधकार में भटकता हुआ सा रेल में जा बैठा और जैसे-तैसे पूंछते - पाछते सरसावा स्टेशन उतर गया। स्टेशन से वीर सेवा मंदिर करीब 2-3 मील दूर पड़ता था। तांगे से जा पहुंचा वह दिन था 10 जून 1946 का आद. कोठियाजी को मार्ग में कहीं और रुकना पड़ा होगा। मेन गेट से दाईं तरफ को विशाल भवन था जिसमें सर्वप्रथम मुख्तार सा का दफ्तर था और उससे लगा हुआ ही विशाल हाल था जिसमें विशाल पुस्तकालय ग्रंथों से भरी अलमारियों से सुशोभित हो रहा था। मैं जैसे ही पहुंचा तो स्व. मुख्तार सा. बाहर आये मैंने अपना परिचय दिया और आद. कोठिया जी की चिट्ठी मुख्तार सा. को सौंप दी। मुख्तार सा. ने तुरन्त ही विशाल द्वार के बगल में स्थित कमरों में से एक कमरा खोल दिया और कहा कि आप यहां रहिए, मैंने अपना सामान उस कमरे में धर लिया। मुख्तार सा. स्नेह भरी वाणी से बोले नहा धोलो और मंदिर जाकर खाना खाओ वहां रहतूनाम का रसोईया रहता था उसे मुख्तार सा. ने भोजन के लिए कह दिया। वह रसोइया खाना बनाने में बड़ा चतुर था, वह चकले बेलन का प्रयोग नहीं करता था वरन् हाथ से ही छोटे-छोटे नरम फुलके खिलता था। भोजन खर्च की कोई निश्चित राशि नहीं थी, जो खर्च होता था मुख्तार सा. उसका हिसाब रुपये-पैसे पाई-पाई से लिखते थे और