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पं जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पापं लुम्पति दुर्गतिं दलयति व्यापादयस्यापदं, पुण्यं सञ्चिनुते श्रियं वितनुते पुष्णाति नीरोगताम्। सौभाग्यं विदधाति पल्लवयति प्रीतिं प्रसूते यशः,
स्वर्ग यच्छति निर्वृतिं च रचयत्यर्चाऽर्हतां निर्मिता॥
अतएव शिथिलाचार व प्रमाद को त्यागकर जिनपूजन/भक्ति को करना चाहिए। ताकि धर्म दिखावे का नहीं रह जाए और धर्म का लोप भी नहीं हो जाये। आगे इसी निबध में पृ 761 पर पंडित जी लिखते हैं -
"यदि आप नौकरों से पूजन कराते रहे और कुछ दिन तक यही शिथिलाचार और जारी रहेगा तो याद रखिये, कि वह दिन भी निकट आ जायेगा, जब दर्शन और सामायिक आदि के लिए भी नौकर रखने की जरूरत होने लगेगी और धर्म का बिलकुल लोप हो जायेगा।" फिर इस कलंक और अपराध का भार आप ही जैसे श्रीमानों की गर्दन पर होगा।
यह निबंध वर्तमान में धर्म को सुरक्षित रखने व भविष्य स्वयं को सुखी बनाने की महती शिक्षा प्रदान कर कर्तव्य बोध का पाठ पढ़ाता है।
तृतीय निबंध में मुख्तार' जी ने युक्ति को माध्यम बनाकर समाज के लिए शिक्षा प्रदान की है, क्योंकि एकांतरूप से विचार करने वाले व्यक्ति मन्दिर जाने के लिए "अतिपरिचयादवज्ञा" की मुक्ति को प्रदर्शित करते हैं,
और कहते हैं कि मन्दिर जाने से अधिक परिचय होने पर जिन चैत्य की अवज्ञा होती है। जैसा कि युगवीर निबंधावली पृ. 762 दृष्टव्य है -
अतिपरिचयादवज्ञा संततगमनादनादरो भवति।
लोकः प्रयागवासी कूपे स्नानं समाचरति ॥ जिसके पास निरन्तर जाना रहता है उसके प्रति हृदय में से आदर भाव निकल जाता है, जैसे कि प्रयाग निवासी मनुष्यों को गंगा और यमुना का अति परिचय होने और उसमें निरन्तर स्नान के लिए जाने से अब उन लोगों के हृदय में से उस तीर्थ का आदर-भाव निकल गया और अब वे नित्य कुएँ पर स्नान करने लगे हैं। इसी प्रकार नित्य मंदिर जाने से भगवान की अवज्ञा और अनादर