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________________ 293 प जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व "जो लोग किसी कारणवश अपने यथार्थ सिद्धान्त अथवा आचरण से च्युत हो गये हैं उन्हें पुनः दृढ़ कर दें परन्तु जैनियों ने यह सब भुला दिया जिसका परिणाम यह हुआ है कि हजारों जैनी "समाज कट गये या विनेकया" बन गये।" और अपने बिछुड़े भाइयों को फिर से गले लगाने का कोई उपाय नहीं सोचा। पं. मुख्तार जी के इस तर्क से हमें सहमत होना पड़ेगा कि यह सब जैनियों का अत्याचार है। जैनियों ने जिनवाणी माता के साथ कैसा सलूक किया - इन जैनियों ने जिनवाणी माता को अंधेरी कोठरियों में बन्द करके रखा जहाँ रोशनी और हवा तक नहीं मिली, हजारों जैन ग्रन्थों को चूहों और दीमकों ने नष्ट कर दिया या मिट्टी हो गए। परन्तु इन जैनियों ने बचाने का उपाय नहीं किया ऐसे अत्याचार जिनवाणी माता के साथ किए। जैनियों ने स्त्री समाज पर भी अत्याचार किए। लड़कियों को बेचना, अनमेल संबंध करना, उन्हें अशिक्षित रखना आदि, अत्याचार जैनियों ने किए हैं। पं. मुख्तार जी ने अपने आलेख में ऐसा लिखा है। यद्यपि अब इन विचारों में काफी परिवर्तन आया है जैनी अपनी बेटियों को पर्याप्त शिक्षा में वर तलाशने में अथवा उचित उम्र में ही शादी करने का प्रयास करते हैं। किन्तु आज जैनी नैतिकता के प्रति या जैन धर्म के मूल सिद्धान्तजों के प्रति केवल दिखावा करने में लगे हैं। घर में बिना छना जल पियेंगे, रात्रि में भोजन करेंगे, होटलों में खाएगें, किन्तु किसी के यहाँ निमंत्रण होने पर उसे परेशान करने का पूरा प्रयास करेंगे कि हम जैनी हैं, खुद का बनाया ही खाते हैं। बिना छना जल नहीं लेंगे। यह दुहरी नीति जैनियों के अत्याचार की खुली कहानी है। दुहरी नीति शब्द का प्रयोग पण्डित जी ने किया है। छानकर पानी पीने वाले और मंदिरों में पूजा-अर्चना करने वाले हजारों युवक शाम को शराब या मांस का सेवन करते हैं जबकि दूसरों को ऐसा न करने को बाध्य करते हैं बड़ी-बड़ी रैलियां निकालते हैं। पं. जी ने पूर्व आचार्यों के कथन के अनुसार एवं उदाहरण देकर कहा है जहाँ तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वामी ने कहा है कि अत्यधिक परिग्रह नरक का कारण है एवं मायाचारी करना तिर्यंच गति का कारण है। वहीं कितने जैनी
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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