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________________ अनेकान्त-रस-लहरी : एक अध्ययन डॉ. श्रीमती मुन्नी पुष्पा जैन, वाराणसी जैनदर्शन का हार्द यदि एक शब्द में कहना हो तो वह शब्द है अनेकान्तवाद । यही जैनदर्शन की विश्व को एक अनुपम और मौलिक देन है। जैनदर्शन की यह मान्यता है कि वस्तु बहुआयामी है उसमें परस्पर विरोधी अनेक गुणधर्म है, किन्तु प्रायः लोग अपनी दृष्टि से वस्तु का समग्र बोध नहीं कर पाते। जबकि अनेकान्तवाद एक ऐसा सिद्धान्त है जो वस्तुतत्त्व को उसके समग्र स्वरूप के साथ प्रस्तुत करता है। इसके बिना निर्विवाद लोक व्यवहार भी नहीं चल सकता । वस्तुतः आग्रही, एकान्त और संकीर्ण स्वार्थपूर्ण विचारों के कारण ही आज ईर्ष्या, कलह कलुषता और परस्पर विवाद की स्थिति निर्मित होती जा रही है, ऐसी स्थिति में अनेकान्तवाद बहुत उपयोगी है। क्योंकि अनेकान्तवादी वस्तुतत्त्व के विभिन्न पक्षों को तत्-तद् दृष्टि से स्वीकार कर समन्वय का श्रेष्ठ मार्ग अपनाता है, वह सिर्फ अपनी ही बात नहीं करता, अपितु सामने वाले की बात को भी धैर्यपूर्वक सुनना है। जहाँ सिर्फ अपनी ही बात का आग्रह होता है, वहाँ दूर-दूर तक सत्य के दर्शन नहीं होते। इस तरह इस अनुपम अनेकान्त सिद्धान्त को सहज और सरल भाषा में बच्चों से लेकर बड़ों एवं विद्वानों तक को समझाने हेतु जैन साहित्य मनीषी, अनेक ग्रन्थों के लेखक, संपादक, अनुवाद पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार 'युगवीर' ने " अनेकान्तरस लहरी" नामक अपनी पुस्तक में 'अनेकान्त' को अनेक उदाहरणों द्वारा समझाया है। यह पुस्तक जनवरी १९५० में सन्मति विद्या प्रकाशमाला के प्रथम प्रकाश के रूप में वीरसेवा मंदिर, सरसावा (सहारनपुर) से प्रकाशित हुई है। इस 54 पृष्ठीय पुस्तक में अनेकान्त के सरस रूप में समझाने के लिए 4 पाठों में गुरू और शिष्यों के माध्यम से कक्षा प्रणाली की विधि अपनाई गई है। इसके प्रथम दो पाठों में अनेकान्त का सूत्र निर्दिष्ट है। शेष दो पाठों में
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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