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________________ 256 Pandit Jugal Kishor, Mukhtar “Yugveer" Personalty and Achievements शिक्षा दी है उसकी व्याख्या उदाहरण देकर करने के बाद मुख्तार जी ने निष्कर्ष रूप में लिखा है कि - "भवितव्यता का आश्रय लेने का अभिप्राय इतना ही है कि स्वयं तत्परता के साथ कार्य करके उसे फल के लिये भवितव्यता पर छोड़ दो, फल की अभिलाषा से आतुर मत हो, क्योंकि इच्छित फल की प्राप्ति उस सब साधन-सामग्री की पूर्णता पर अवलंबित है, जो तुम्हारे अकेले के वश की नहीं है, तुम किसी द्रव्य के स्वभाव को उससे पृथक् नहीं कर सकते और न उसमें कोई नया स्वभाव उत्पन्न ही कर सकते हो। सब द्रव्यों का परिणमन उनके स्वभाव तथा उनकी परिस्थितियों के अनुसार हुआ करता है इसलिये कर्तृत्व-विषय में तुम्हारा एकांगी अहंकार निःसार है।" ग्रंथ का 52 नं. का श्लोक यह दर्शाता है कि तत्वज्ञान से व्याप्त व्यक्ति के मन और इन्द्रियों की दशा कैसी हो जाती है। इसकी व्याख्या में पंडित जी ने समझाया है कि - "चित्त जब वस्तुतत्व के विज्ञान से पूर्ण और वैराग्य से व्याप्त होता है तब इन्द्रियों की ऐसी अनिर्वचनीय दशा हो जाती है कि उन्हें न तो मृत कहा जाता है न जीवित । न सुप्त कहने में आता है और न जाग्रत। मृत कहा जाता कि उनमें स्व विषय ग्रहण की योग्यता पाई जाती है और वे कालान्तर में अपने विषय को ग्रहण करती हुई देखी जाती है, जबकि मृतावस्था में ऐसा कुछ नहीं बनता। जीवित इसलिये नहीं कहा जाता कि विषय ग्रहण की योग्यता होते हुए भी उनमें उस समय विषय ग्रहण की प्रवृत्ति नहीं होती। सुप्त इसलिये नहीं कहा जाता कि विषय के अग्रहण में उनके निद्रा की परवशता जैसा कोई कारण नहीं है और जाग्रत इसलिये नहीं कहा जाता कि निद्रा का अस्तित्व अथवा उदय न होने से उपयोग की स्वतंत्रता के होते हुए भी वह उनके उन्मुख नहीं होता। उपयोग की अनुपस्थिति में इन्द्रियाँ सुप्त न होते हुए भी जागृतावस्था जैसा कोई काम नहीं कर पाती। ग्रंथ में व्यवहार और निश्चय नय के माध्यम से भी अनेक विषयों जैसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि का विश्लेषण किया गया है। इनकी व्याख्याओं को भी मुख्तार जी ने विस्तृत करके समझाया है तथा उसके लिये अनेक उदाहरण भी दिये हैं। उदाहरण देने में उन्होंने आचार्य पूज्यपाद के प्रसिद्ध
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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