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५ जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व
इस प्रकार यदि शब्द का यथार्थ अर्थ प्रस्तुत न किया जाये तो अनुवाद में ग्रन्थकार के प्रति अन्याय होना सम्भव है।
(7) सम्यक्दर्शन का इतना व्यवस्थित,विशद् एवं महिमामण्डित विवेचन किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं किया गया जितना रत्नकरण्ड में किया गया है। समीचीन धर्मशास्त्र में इसके प्रत्येक पद्य की व्याख्या सांगोपांग की गई है। जैसे श्लोक 11 में इदमेवेदृशं चैवे 'तत्त्वं' - यहाँ तत्त्व पद के साथ कोई विशेषण नहीं है, परन्तु उत्तरार्ध पद में 'सन्मार्गेऽसंशया रूचिः' के साथ जोड़कर देखने पर आत, आगम और गुरू अथवा जीव/अजीवादि तत्त्व सभी समाहित कर होना चाहिए ऐसा सुस्पष्ट खुलाशा किया गया है। भाष्यकार ने स्पष्ट किया कि विवक्षा को साथ लिये 'ही' शब्द एकान्त का सूचक न होकर निश्चयादि का बोधक होता है। यहाँ इदं और ईदृशं के साथ एव यानी 'ही' इसी सुनिश्चय का सूचक है।
(8) 'रत्नकरण्ड' की दूसरी मौलिकता पर भाष्यकार ने विशद अभिव्यक्ति दी। वह है ज्ञान के अन्तर्गत चारों अनुयोगों की स्पष्ट परिभाषाएं देना। व्याख्याकार ने प्रथमानुयोग में प्रथम शब्द संख्या वाचक न मानकर प्रधानता का द्योतक कहा। तथा इसकी चार विशेषताओं को रेखांकित किया। करणानुयोग को तीन भागों में विभाजित कर विषयवस्तु का क्षेत्र बताया। चरणानुयोग की व्याख्या में गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा को वर्णित किया। द्रव्यानुपयोग को दीपक की उपमा दी। इस प्रकार चारों अनुयोगों के ज्ञान को सम्यक्ज्ञान कहा।
(9) श्रावक के बारह व्रतों में स्वामी समन्तभद्र ने कुछ व्याख्याएं बदली हैं। इसकी तुलनात्मक व्याख्या भाष्यकार ने प्रस्तुत की है। अन्य आचार्यों ने जहाँ भोगोपभोगपरिमाणवत को शिक्षाव्रत के अन्तर्गत रखा, वहाँ समन्तभद्र स्वामी ने इसे गुणव्रत वे अन्तर्गत समाहित किया। इसी प्रकार देशव्रत को 'शिक्षाव्रत' के अन्तर्गत समाभूत किया। अतिथिसम्भाग' को व्यापक शब्द के द्वारा व्याहृत किया और नया नाम दिया 'वैय्यावृत्त। चारों दान के प्रकरण में जहाँ अन्य आचार्यों ने शास्त्र दान कहा वहीं स्वामी समन्तभद्र ने 'उपकरण दान' से अभिसंजित किया। उपकरण दान में शास्त्र के