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128 Pandit Jugal Kishor Mukhtar Yugveer" Personality and Achievements
मेरी भावना के द्वितीय पद्य में युगवीर जी ने निर्ग्रन्थ साधु अर्थात् गुरु के स्वरुप वर्णन किया है जो दृष्टव्य है
विषयों की आशा नहिं जिनके साम्यभाव धन रखते हैं। निजपर के हित साधन में जो निशदिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या बिना खेद जो करते हैं। ऐसे ज्ञानी साधु जगत के दुख समूह को हरते हैं।
इस पद्य में उन्होंने श्रावकों के हृदय में यथार्थ गुरु के प्रति श्रद्धाभाव को दृढ रुप से स्थापित करने का प्रयत्न किया है। इसका वर्ण्य विषय आ. समन्तभद्र के निम्न श्लोक से आखवित किया गया है।
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽ परिग्रहः।
ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥ प्रस्तुत मेरी भावना की पंक्तियों को उन्होंने कहा ही नहीं है, अपितु अपने गृहस्थ जीवन में भी यथासंभव उतार कर जो अनुभव किया वह साधु नहीं तो साधक श्रावक की भूमिका का निर्वाह ही कहा जावेगा। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आर्ष निर्ग्रन्थ परम्परा के साधु का निस्पृह स्वरुप उनके जीवन में भी मानों साकार होकर समाविष्ट हो गया है। ऐसा भी कथनीय हो सकता है कि 'मेरी भावना' में उन्होंने स्वयं अपनी आन्तरिक लक्ष्यरूप आकांक्षाओं को ही प्रकट किया है किसी अन्य की नहीं। अन्य जन उनके अनुयायी बनकर इस भावना पाठ को पाथेय जानकर ग्रहण कर रहे हैं।
पद्य क्रमांक ३ के अद्भाश में गुरुजनों को सत्संगति आदि श्रेष्ठ कार्य तथा साधुओं जैसी चर्या हेतु मन की अनुरक्तता की कामना की है। ज्ञातव्य है
रहे सदा सत्संग उन्हीं का ध्यान उन्हीं का नित्य रहे।
उनहीं जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे। और भी देखे
गुणी जनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे। बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे,