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पं जुगलकिशोर मुखार "वीर" व्यकित्व एवं कृतित्व
रहे अडोल, अकम्प निरन्तर, यह मन दृढ़तर बन जावे। इष्ट-वियोग, अनिष्ट योग में, सहन सीलता दिखलावे।
___मेरी भावना, पद क्रमांक - 8 ७."मेरी भावना" का भावपक्ष -
भावपक्ष कविता का प्राण है, हृदयस्थल है, आभ्यन्तर रूप है। इसके अन्तर्गत रस, गुण, रीति, शब्दशक्ति आदि के प्रयोग का विचार किया जाता है। मेरी भावना का भावपक्ष पूर्ण सबल है। सम्पूर्ण रचना मे शान्त रस का अखंड साम्राज है। व्यक्ति पाठ करता हुआ भावविभोर हो आत्मिक रस का अनुभव करता है। शुचितम भावों का सहज सौन्दर्य सर्वत्र विद्यमान है। सरसता के कारण कविता कंठ की नहीं, आत्मा की सम्पत्ति बन गई है। माधुर्य और प्रसाद गुण ने रसोद्रेक में सहयोग कर काव्य को रसानुभूति की चरम दशा तक पहुंचा दिया है। कर्णप्रिय मधुर वर्गों के स्वाभाविक प्रयोग ने काव्य में मिश्री जैसी मिठास उत्पन्न कर दी है, तो सरलतम अभिव्यक्ति स्वच्छ जल में पड़े, साफ-साफ झलकने वाले पदार्थ की तरह कविता का भाव सामान्य पाठक को भी हृदयंगम करने में सुगमता प्रदान करती है। अधिकतर कथन अभिधाशक्ति में हैं, किन्तु 'क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयता या! एवं "रमणीयार्थ प्रतिपादक : शब्द: काव्यम्'' की अनुज सर्वत्र सुनाई देती है। ८. मेरी भावना का कला-पक्ष -
कला पक्ष कविता का बाह्य पक्ष है। इसमें काव्य में प्रयुक्त भाषा शैली, अलंकार एवं छन्द आदि का विचार किया जाता है। (अ) भाषा :
भाषा भावाभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण साधन है। भाषा की तुलना हम काव्य के शरीर से कर सकते हैं। जैसे प्राण शरीर में रहते हैं वैसे ही भाव/अर्थ भाषा/ शब्द में रहते हैं। अत: काव्य में भाषा का स्थान महत्वशाली है।