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________________ 98 Pandit Jugal Kishor Mukhtar Yugveer" Personality and Achievements न्याय के प्रति युगवीर जी का गहरा आग्रह है। न्यायपथ पर चलते हुए कितनी ही विघ्न बाधायें आये, लेकिन कभी हमारे कदम नहीं डगमगाना चाहिए। महाकवि भर्तृहारि ने भी अपने नीतिशास्त्र में कहा है - निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि व स्तुवन्तु, लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्। अद्वैव मर णमस्तु युगान्तरे वा, न्यायात्पथात् प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥ न्याय के सम्बन्ध में में युगवीर जी का स्पष्ट अभिमत है कि मानव यदि प्रत्येक परिस्थिति में न्याय ग्रहण करने का इच्छुक हो और अन्याय का त्याग करे तो उसका सभी दृष्टिकोणों से विकास हो सकता है। __ सुख और दुःख में, हर्ष और विषाद में हमें साम्य दृष्टि रखते हुए मन की चंचलता पर नियन्त्रण रखना चाहिए। अपने व्यक्तित्व की विकास यात्रा के साथ ही कवि की भावना है कि संसार के सभी प्राणी भी बैर, पाप एवं अभिमान को त्यागकर सुखी जीवन व्यतीत करें। प्रत्येक घर मे धर्म का वातावरण बनें, जिससे कि बालक वृद्ध, नर और नारी सभी का बौद्धिक एवं चारित्रिक विकास हो। राजनीति के कुचक्र मे क्षुद्र भावों की पूर्ति के लिए कहीं धर्म के नाम पर कहीं भाषा एवं वेश के आधार पर बार-बार हिसा को उकसाया जा सकता है। सतों/महात्माओं द्वारा जगाई गई अहिंसा की ज्योति को बुझाने का प्रयास किया जाता है। परन्तु वह ज्योति केवल कांप कर रह जाती है बुझती नहीं है। यही अहिंसा राजा और प्रजा के बीच सर्वत्र व्याप्त हो। मेरी भावना मे काव्यगत सौन्दर्य की झलक भी सर्वत्र परिलक्षित होती है। शब्द चयन एव भाव की दृष्टि से पद्य अत्यन्त उच्च कोटि के हैं। शब्द का सौष्ठव तथा पदावली का मधुमय विन्यास देखते ही बनता है। विपुल अर्थ को कम से कम शब्दों में प्रकाशित करने की क्षमता कवि में वर्तमान है। हृदय के परिवर्तनशील भावों का अंकन कमनीय शब्द कलेवर में किया है। प्रसाद गुण सम्पूर्ण पदावली में विद्यमान है। संतोष को अमृत का रूपक देकर ससार के
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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