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________________ समीचीन-शर्मशास्त्र सहायता मिल सके * । दूसरे किसी विद्वानकी ओरसे भी मुझे आज तक वैसा कोई उत्तर या तद्विषयक सुझाव प्राप्त नहीं होसका है । इन आपत्तियोंमें बहुत कुछ तथ्य पाया जाता है; और इसलिये इनका पूरी तौरसे समाधान हुए बिना उक्त छहों या पाँच पद्योंको पूर्ण रूपसे ग्रन्थका अंग नहीं कहा जा सकताउन्हें स्वामी समन्तभद्रकी रचना स्वीकार करने में बहुत बड़ा संकोच होता है । आश्चर्य नहीं जो ये पद्य भी टीकास पहले ही प्रन्थमें प्रक्षिप्त हो गये हों और साधारण दृष्टि से देखने अथवा परीक्षादृष्टि से न देखने के कारण वे टीकाकारको लक्षित न हो सके हों। यह भी संभव है कि इन्हें किसी दूसरे संस्कृत-टीकाकार ने रचा हो, कथाओंसे पहले उनकी सूचनाके लिये अपनी टीकामें दिया हो और बादको उस टीका परसे मूलग्रन्थकी नकल उतारते समय असावधान लेखकोंकी कृपास व मूलका ही अंग बना दिये गये हों । परन्तु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि चे पद्य संदिग्ध जरूर हैं और इन्हें सहसा मूलग्रन्थका अंग अथवा स्वामी समन्तभद्रकी रचना मानने में संकोच जरूर होता है। यहाँ तककी इस सम्पूर्ण जाँचमें जिन पद्योंकी चर्चा की गई है, मैं समझता हूँ, उनसे भिन्न ग्रन्थमं दृमरे एसे कोई भी पद्य मालूम नहीं होते जो खास तौरसे संदिग्ध स्थितिमं पाये जाते हों अथवा जिन पर किसीने अपना युक्तिपुरम्मर संदेह प्रकट * यपि छठे पद्यका रंगढंग दूसरे पद्योम कुछ भिन्न है और उसे ग्रन्थका अंग माननेको जी भी कुछ चाहता है परन्तु पहली आपत्ति उसमें खास तौरसे बाधा डालती है और यह स्वीकार करने नहीं देती कि वह मी निःसन्देह ग्रन्थका कोई अंग है । हाँ, यदि इसे दृष्टान्तके रूपमें न लेकर फल-प्रतिपादनके रूपमें लिया जाय ( अर्हत्पूजाके फलविषयका दूसरा कोई पद्य है भी नहीं ) तो इसे एक प्रकारसे ग्रन्थका अंग कहना ठीक हो सकता है।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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