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________________ प्रस्तावना ७१ जरूर मालूम होता है । चौथी आपत्तिके सम्बन्धमें यह कल्पना की जा सकती है कि 'धनश्री' नामका पद्य कुछ अशुद्ध होगया है । उसका 'यथाक्रम' पाठ जरा खटकता भी है । यदि ऐसे पद्योंमें इस आशयके किसी पाठके देनेकी ज़रूरत होती तो वह 'मातंगो' तथा 'श्रीपेण' नामके पद्योंमें भी जरूर दिया जाता; क्योंकि उनमें भी पूर्वकथित विपयोंके क्रमानुसार दृष्टान्तोंका उल्लेख किया गया है । परन्तु एसा नहीं है; इसलिये यह पाठ यहाँ पर अनावश्यक मालूम होता है । इस पाठकी जगह यदि उसीकी जोड़का दूसरा 'ऽन्यथासमं' पाठ बना दिया जाय तो झगड़ा बहुत कुछ मिट जाता है और तब इस पद्यका यह स्पष्ट आशय हो जाता है कि, पहले पद्यमें मातंगादिकके जो दृष्टान्त दिये गये हैं उनके साथ ( समं ) ही इन 'धनश्री' आदिके दृष्टान्तोंको भी विपरीतरूपसे ( अन्यथा) उदाहृत करना चाहिये-अर्थात , व अहिंसादिव्रतोंक दृष्टान्त हैं तो इन्हें हिंसादिक पापोंके दृष्टान्त समझना चाहिये और वहाँ पूजातिशयको दिखाना है तो यहाँ तिरस्कार और दुःखके अतिशयको दिखलाना होगा। इस प्रकारके पाठभेदका हो जाना कोई कठिन बात भी नहीं है । भंडारोंमें ग्रन्थोंकी हालतको देखते हुए, वह बहुत कुछ साधारण जान पड़ती है । परन्तु तब इस पाठभेदके सम्बन्धमें यह मानना होगा कि वह टीकासे पहले हो चुका है और टीकाकारको दूसरे शुद्ध पाठकी उपलब्धि नहीं हुई । यही वजह है कि उसने 'यथाक्रम' पाठ ही रक्खा है और पद्यके विषयको स्पष्ट करनेके लिये उसे टीकामें हिंसादिविरत्यभावे' पदकी वैसे ही ऊपरसे कल्पना करनी पड़ी है। शेप आपत्तियोंके सम्बन्धमें, बहुत कुछ विचार करने पर भी, मैं अभी तक ऐसा कोई समाधानकारक उत्तर निश्चित नहीं कर सका हूँ जिससे इन पद्योंको ग्रन्थका एक अंग स्वीकार करने में
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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