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________________ प्रस्तावना ५७ जाता है । श्वेताम्बर भाई प्राप्तके नुधा-तृषादिकका. होना भी मानते हैं जो दिगम्बरोंको इष्ट नहीं है और ये सब अन्तर उनके प्रायः सिद्धान्त-भेदोंपर अवलम्बित हैं। इस पद्यके द्वारा पूर्वपद्य में आए हुए 'उत्सन्नदोषेण' पदका बहुत कुछ स्पष्टीकरण हो जाता है। दूसरे पद्यमें आप्तके कुछ खास-खास नामोंका उल्लेख किया गया है-यह बतलाया गया है कि प्राप्तको परमेष्ठी, परंज्योति, विराग (वीतराग), विमल, कृती, सर्वज्ञ, सार्व तथा शास्ता आदि भी कहते हैं-और नामकी यह परिपाटी दूसरे प्राचीन ग्रन्थों में भी पाई जाती है जिसका एक उदाहरण श्रीपूज्यपादन्वामीका 'समाधितन्त्र ग्रन्थ' है, उसमें भी परमात्माकी नामावलीका एक 'निर्मलः कंवलः' इत्यादि पद्य दिया है । अस्तु, तीसरे पद्यमें आप्तस्वरूपसे उत्पन्न होनेवाले इस प्रश्नको हल किया गया है कि जब शास्ता वीतराग है तो वह किस तरह पर और किस उद्देशसे हितोपदेश देता है और क्या उसमें उसका कोई निजी प्रयोजन है ? इस तरह पर ये तीनों ही पद्य प्रकरणके अनुकूल हैं ओर ग्रन्थके आवश्यक अङ्ग जान पड़ते हैं। - कुछ लोगोंकी दृष्टिमें, भोगोपभोगपरिमाण नामक गुणवतके कंथनमें आया हुआ, 'त्रसहतिपरिहरणार्थ नामका पद्य भी खटकता है। उनका कहना है कि 'इस पद्यमें मद्य, मास और मधुके त्यागका जो विधान किया गया है वह विधान उससे पहले अष्टमूल गुणोंके प्रतिपादक 'मद्यमांसमधुत्यागैः' नामके श्लोकमें आ चुका है । जब मूलगुणोंमें ही उनका त्याग चुका तब न्तराय, ५ लाभान्तराय, ६ निद्रा, ७ भय, ८ अज्ञान, ६ जुगुप्सा, १० हास्य, ११ रति, १२ अरति, १३ राग, १४ द्वेष, १५ अविरति, १६ काम, १७ शोक, १८ मिथ्यात्व । ( देखो, विवेकविलास और जैनतत्त्वादर्श ।)
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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