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________________ प्रस्तावना ५५ 'पुनरुक्ति' ये दोनों एक चीज़ नहीं हैं, दोनोंमें बहुत बड़ा अन्तर है और इसलिये ज़रूरत न होनेको पुनरुक्ति समझ लेना और उसके आधार पर पद्योंको क्षेपक मान लेना भूलसे खाली नहीं है। दूसरे, ३५ वें पद्यसे मनुष्य और देवपर्यायसम्बन्धी जो नतीजा निकलता है वह बहुत कुछ सामान्य है और उससे उन विशेष अवस्थाओंका लाज़िमी तौर पर बोध नहीं होता जिनका उल्लेख अगले पद्यों में किया गया है-एक जीव देव-पर्यायको प्राप्त हुआ भी भवनत्रिकमें (भवनवासी-व्यन्तर-ज्योतिषियोंमें) जन्म ले सकता है और स्वर्गमें साधारण देव हो सकता है । उसके लिये यह लाजिमी नहीं होता कि वह स्वगमें देवोंका इन्द्र भी हो। इसी तरह मनुष्यपर्यायको प्राप्त होता हुआ कोई जीव मनुष्योंकी दुष्कुल और दरिद्रतादि दोपोंसे रहित कितनी ही जघन्य तथा मध्यम श्रेणियों में जन्म ले सकता है । उसके लिये मनुष्य पर्यायमें जाना ही इस बातका कोई नियामक नहीं है कि वह महाकुल और महाधनादिककी उन संपूर्ण विभूतियांसे युक्त होता हुआ 'मानयतिलक' भी हो जिनका उल्लेख ३६ वें पद्यमें किया गया है। और यह तो स्पष्ट ही है कि एक मनुष्य महाकुलादिसम्पन्न मानवतिलक होता हुआ भी-नारायण, बलभद्रादि पदोंसे विभूषित होता हुआ भी-चक्रवर्ती अथवा तीर्थकर नहीं होता। अतः सम्यग्दर्शनके माहात्म्य तथा फलको अच्छी तरहसे प्रख्यापित करने के लिये उन विशेष अवस्थाओंको दिखलाने की खास जरूरत थी जिनका उल्लेख वादके चार पद्योंमें किया गया है और इसलिये व पद्य क्षेपक नहीं है । हाँ, अन्तका ४१ वाँ पद्य यदि वह सचमुच ही 'संग्रहवृत्त' है-जैसा कि टीकाकारने भी प्रकट किया है--कुछ खटकता जरूर है । परन्तु मेरी रायमें वह * यथा-"यत्प्राक् प्रत्येक श्लोकः सम्यग्दर्शनस्य फलमुक्त तद्दर्शनाधिकारस्य समाप्तौ संग्रहवृत्तेनोपसंहृत्य प्रतिपादयन्नाह-"
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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