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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र संकोच नहीं होता कि स्वामी समन्तभद्रके प्रबन्धोंमें व्यर्थको पुनरुक्तियाँ नहीं हो सकतीं। इसी बातकी जाँचके लिये मैंने इन पद्योंको कई बार बहुत गौरके साथ पढ़ा है; परन्तु मुझे उनमें ज़रा भी पुनरुक्तिका दर्शन नहीं हुआ । प्रत्येक पद्य नये-नये भाव और नये-नये शब्द-विन्यासको लिये हुए हैं। प्रत्येकमें विशेषता पाई जाती है-हर एकका प्रतिपाद्यविषय, सम्यग्दर्शनका माहात्म्य अथवा फल होते हुए भी अलग-अलग है-और सभी पद्य एक टकसालके-एक ही विद्वान्के द्वारा रचे हुए-मालूम होते हैं। उनमेंसे किसी एकको अथवा किसीको भी 'क्षेपक' कहनेका साहस नहीं होता। मालूम नहीं उन लोगोंने कहाँ से इनमें पुनरुक्तियोंका अनुभव किया है । शायद उन्होंने यह समझा हो और वे इसी बातको कहते भी हों कि जब ३५वें पद्यमें वह बतलाया जा चुका है कि शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव नारक, तिर्यंच, नपुंसक और स्त्रीकी पर्यायोंमें जन्म नहीं लेता, न दुष्कुलोंमें जाता है और न विकलांग, अल्पायु तथा दरिद्री ही होता है तो इससे यह नतीजा सहज ही निकल जाता है कि वह मनुष्य तथा देवपर्यायोंमें जन्म लेता है, पुरुष होता है, अच्छे कुलोंमें जाता है; साथ ही धनादिक की अच्छी अवस्थाको भी पाता है । और इसलिये मनुष्य तथा देव-पर्यायकी अवस्थाओंके सूचक अगले दो पद्योंके देनेकी जरूरत नहीं रहती। यदि उन्हें दिया भी था तो फिर उनसे अगले दो पद्योंके देनेकी ज़रूरत न थी। और अन्तका ४१ वाँ पछ तो बिलकुल ही अनावश्यक जान पड़ता है, वह साफ तौरसे पुनरुक्तियोंको लिये हुए है-उसमें पहले चार पद्योंके ही आशयका संग्रह किया गया है-या तो उन चार पद्योंको ही देना था और या उन्हें न देकर इस एक पद्यको ही देना काफी था ।' इस सम्बन्धमें मैं सिर्फ इतना ही कहना उचित समझता हूँ कि प्रथम तो 'ज़रूरत नहीं रहती' या 'जरूरत नहीं थी' और
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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