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________________ प्रस्तावना से प्राप्त हुई थी, ५० श्लोक अधिक हैं जिनमेंसे उन श्लोकोंको छोड़कर जो स्पष्ट रूपसे 'क्षेपक' मालूम होते थे शेष ७ पद्योंको परिशिष्टके तौर पर दिया गया है । इस सूचनासे दो बातें पाई जाती हैं--एक तो यह कि, कनडी लिपिमें इस ग्रन्थकी ऐसी भी प्रति है जिसमें २०८ श्लोक पाये जाते हैं। दूसरी यह कि, लट्ठ साहबको भी इन डेढसौ श्लोकोंमेंसे कुछ पर क्षेपक होनेका संदेह है जिन्ह वे असम्बद्ध कहते हैं । यद्यपि आपने ऐसे पद्योंकी कोई सूची नहीं दी और न क्षेपक-सम्बन्धी कोई विशेष विचार ही उपस्थित किया-बल्कि उस प्रकारके विचारको वहाँ पर 'अप्रस्तुत' कहकर छोड़ दिया हैx-तो भी उदाहरणके लिये आपने २७ वें पद्यकी ओर संकेत किया है और उसे असम्बद्ध बतलाया है। वह पच इस प्रकार है यदि पापनिरोधोऽन्यसंपदा किं प्रयोजनं । अथ पापस्रवांस्त्यन्यसंपदा किं प्रयोजनं ॥ यह पद्य स्थूल दृष्टिसे भले ही कुछ असम्बद्धसा मालूम होता हो परन्तु जब इसके गम्भीर अर्थ पर गहराईके साथ विचार किया जाता है और पूर्वापर-पद्योंके अर्थके साथ उसकी शृङ्खला मिलाई जाती है तो यह असम्बद्ध नहीं रहता । इसके पहले २५वें पद्यमें मदका अष्टभेदात्मक स्वरूप बतलाकर २६वें पद्यमें उस मदके करनेका दोष दिखलाया गया है और यह जतलाया गया है कि किसी कुल जाति या ऐश्वर्यादिके मदमें आकर धर्मात्माओं का-सम्यग्दर्शनादिक युक्त व्यक्तियोंका-तिरस्कार नहीं करना चाहिये । इसके बाद विवादस्थ पद्यमें इस बातकी शिक्षा की गई है कि जो लोग कुलेश्वर्यादि सम्पत्तिसे युक्त हैं वे अपनी X यथा--"मूल पुस्तकांत म्हणून दिलेल्या १५० श्लोकांत देखील कांहीं असंबद्ध दिसतात. उदाहरणार्थ २७ वाँ श्लोक पहा. परन्तु हा विचार या ठिकाणी अप्रस्तुत आहे."
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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