SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना ठीक नहीं है । क्योंकि स्वयं स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें ऐसे दृसरे कितने ही गुणोंका चिन्तन किया है जिनमें शरीर-सम्बन्धी गुण-धर्मों के साथ अन्य अतिशय भी आगये हैं । । और इससे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी समन्तभद्र अतिशयोंको मानते थे और उनके स्मरण-चिन्तनको महत्व भी देते थे। ऐसी हालतमें 'आप्तमीमांसा' ग्रन्थके सन्दर्भको दृष्टिसे भी प्राप्त क्षुत्पिपासादिके अभावको विरुद्ध नहीं कहा जा सकता और तब रत्नकरण्डका उक्त छठा पद्य भी विरुद्ध नहीं ठहरता। हाँ, प्रो० साहबने आप्रमीमांसाकी ६३वों गाथाको विरोधमें इस विषयके सूचक कुछ वाक्य इस प्रकार है(क) शरीररश्मिप्रसरः प्रभोस्ते बालार्करश्मिच्छबिरालिलेप २८ । यस्याङ्गलक्ष्मीपरिवेषभिन्न तमस्तमोररिव रश्मिभिन्न, ननारा बाह्य... . . . . . . ३ ३ । समन्ततोऽङ्गभासा ते परिवेपेगा भूयमा, तमो बाह्यमपाकीगा मध्यात्म ध्यान तेजसा ६५ । यस्य च मूतिः कनकमयीव स्वस्फुरदाभाकृतपरिवषा १८ । शशिचिचिमुक्नलोहितं मरभितरं विरजो निजं वपुः । तव शिवमतिविस्मय यते यदपि च वाङ्मनसीयमीहितम् ११३ । ___ (ख) नभन्तलं पल्लवर्यान्नव वं महयात्राम्बजगभचार:, पादाम्बुज: पातितमारदो भुमो प्रजाना विजहथं भूत्यै २६ । प्रातिहार्यविभवैः परिप्कृतो देहतोऽपि विरतो भवानभूत् ७३ । मानपी प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यत: ७९ । पूज्ये मुहुः प्राञ्जलिदेव चक्रम् ७६ । मर्वज्ञज्योतिषोदभतस्तावको महिमोदयः कं न कृर्या प्रमा मते सत्त्वं नाथ सचेतनम् ६६ । तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकं प्रोगयत्यमृतं यद्वत्प्रागिनो व्यापि संसदि ६७ । भरपि रम्या प्रतिपदमासीज्जातविकोशाम्बुजमृदुदामा १०।।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy