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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र परीक्षाकी कसौटी भी है जिसे लेकर उन्होंने कितने ही प्राप्तोंकी जाँच की है और फिर उस परीक्षाके फलस्वरूप वे वीरजिनेन्द्रके प्रति यह कहने में समर्थ हुए हैं कि 'वह निर्दोष प्राप्त आप ही हैं। ( स त्वमेवामि निदषिः ) साथ ही 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' इस पदके द्वारा उस कसोटीको भी व्यक्त कर दिया जिसके द्वारा उन्होंने आप्तोंक वीतरागता और सर्वज्ञता जैसे असाधारण गुणोंकी परीक्षा की है, जिनके कारण उनके वचन युक्ति और शास्त्रसे अविरोधरूप यथार्थ होते हैं, और आगे संक्षेपमें परीक्षाकी तफ़सील भी दे दी है । इस परीक्षामें जिनके आगम-वचन युक्तिशास्त्रसे अविरोधरूप नहीं पाये गये उन सवेथा एकान्तवादियोंको प्राप्त न मानकर 'आप्ताभिमानदग्ध' घोषित किया है। इम तरह निर्दोष वचन-प्रणयनके साथ सर्वज्ञता और वीतरागताजैस गुणांको अापका लक्षण प्रतिपादित किया है। परन्तु इसका यह अथ नहीं कि प्राप्तमें दूसरे गुण नहीं होते, गुण तो बहुत हात है किन्तु व लक्षणात्मक अथवा इन तीन गुणांकी तरह खास तोरसे व्यावर्तात्मक नहीं, और इसलिये आप्तके लक्षणमें वे भल ही ग्राह्य न हो परन्तु आप्तक स्वरूप-चिन्तनमें उन्हें अग्राह्य नहीं कहा जा सकता। लक्षण और स्वरूपमें बड़ा अन्तर है-लक्षण-निर्देश में जहाँ कुछ असाधारण गुणोंको ही ग्रहण किया जाता है वहाँ स्वरूपक निर्देश अथवा चिन्तनमें अशेष गुणोंके लिये गुञ्जाइश (अवकाश) रहती है । अतः अष्टसहस्रीकारने 'विय हादिमहोदयः' का जो अर्थ 'शश्वनिस्वेदत्वादिः' किया है और जिसका विवंचन ऊपर किया जा चुका है उस पर टिप्पणी करते हुए प्रो० साहबने जो यह लिखा है कि “शरीर सम्बन्धी गुण-धर्मोका प्रकट होना न होना आपके स्वरूप-चिन्तनमें कोई महत्व नहीं रखते"* वह * अनेकान्त वर्ष ७ किरण ७-८ पृ० ६२
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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