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________________ कारिका १३५ ] अभ्युदय-सुख-स्वरूप १७३ हो उठता है, इतना ही नहीं बल्कि त्रैलोक्य चूडामणिकी शोभाको धारण करता है अर्थात् सर्वोत्कृष्ट पदको प्राप्त करता है । अभ्युदय - सुख-स्वरूप । पूजार्थाऽऽज्ञैश्वर्यैर्बल-परिजनं-काम-भोग-भूयिष्ठैः अतिशयित-भुवनमद्भुतमभ्युदयं फलति सद्धर्मः ॥ १४ ॥ १३५ ॥ इति श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्य विरचिते समीचीन धर्मशास्त्रे रत्नकरण्डाऽपरनाम्नि उपासकाऽध्ययने सल्लेखनावर्णनं नाम षष्ठमध्ययनम् ॥ ६ ॥ ' (सल्लेखना के अनुष्ठान से युक्त ) सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्ररूप antara जिस 'अभ्युदय' फलको फलता है वह पूजा, धन तथा श्राज्ञाके ऐश्वर्य (स्वामित्व) से युक्त हुआ बल, परिजन, काम तथा भोगकी प्रचुरताके साथ लोकमें अतीव उत्कृष्ट और आश्चर्यकारी होता है। व्याख्या - यहाँ समीचीन धर्मके 'अभ्युदय' फलका सांकेतिक रूपमें कुछ दिग्दर्शन कराया गया है । अभ्युदय फल लौकिक उत्कर्षकी बानोंको लिए हुए है, लौकिकजनोंकी प्राय: साक्षात् अनुभूतिका विषय है और इसलिये उसके विषय में अधिक लिखने की जरूरत नहीं है; फिर भी 'भूमि':' 'अतिशयितभुवन' और 'अद्भुत' पदके द्वारा उसके विपरामें कितनी ही सूचनाएँ कर दी गई है और अनेक सूचनाएँ दर्शन के माहात्म्य-वन में पहले आ चुकी हैं। इस प्रकार स्वामी समन्तभद्राचार्य विरचित समीचीन धर्मशास्त्रअपरनाम - रत्नकरण्ड- उपासकाध्ययनमें 'सल्लेखना - वर्गान' नामका छठा अध्ययन समाप्त हुआ ॥ ६ ॥ -
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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