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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०६ उसे एकदम उलट पलट कर देनेवाला--कोई महान् असाधारण उत्पात भी हो तब भी उनके विक्रियाका होना संभव नहीं हैवे बराबर अपने स्वरूपमें सदा कालके लिये स्थिर रहते हैं।' ___ व्याख्या-यहाँ एक ऐसे महान् एवं असाधारण उत्पातकी कल्पना की गई है जिससे तीनलोककी सारी रचना उलट-पलट हो जाय और तीनों लोकोंको पहचानने में भारी भ्रम उत्पन्न होने लगे। साथ ही लिखा है कि सैकड़ों कल्पकाल वीत जाने पर ही नहीं किन्तु यदि कोई ऐसा उत्पात भी उपस्थित हो तो उसके अवसर पर भी निःश्रेयस सुखको प्राप्त हुए सिद्धों कोई विकार उत्पन्न नहीं होगा-वे अपने स्वरूपमें ज्योंके त्यों अटल और अडोल बने रहेंगे। कारण इसका यही है कि उनके आत्मामे विकृत होनेका कारण सदाके लिये समूल नष्ट हो जाता है । निःश्रेयसमधिपन्नास्त्रलोक्यशिखामणिश्रियं दधते । निष्किट्टिकालिकाच्छवि-चामीकर-भासुरात्मानः॥१३॥१३४ 'जो निःश्रेयसको----निवारणको प्राप्त होते हैं वे कीट और कालिमासे रहित छविवाले सुवर्णक समान देदीप्यमान आत्मा हाते हुए तीन लोकके चूड़ामणि-जैसी शोभाको धारण करते हैं।' ___व्याख्या-जिस प्रकार खानके भीतर सुवर्ण-पाषाणमें स्थित सुवर्ण कीट और कालिमासे युक्त हुआ अपने स्वरूपको खोए हुआसा निस्तेज बना रहता है। जब अग्नि आदिके प्रयोग-द्वारा उसका वह सारा मल छंट जाता है तब वह शुद्ध होकर देदीप्यमान हो उठता है। उसी प्रकार संसार में स्थित यह जीवात्मा भी द्रव्यकर्म, भाव कर्म और नोकर्मके मलसे मलिन हुआ अपने स्वरूपको खोए हुाअसा निस्तेज बना रहता है । जब सबतों और सल्लेखनाके अनुष्ठानादि रूप तपश्चरणकी अग्निमें उसका वह सब कर्ममल जलकर अलग हो जाता है तब वह भी अपने स्वरूपका पूर्ण लाभकर देदीप्यमान
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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