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________________ कारिका १२४-१२८] सल्लेखना-विधि उत्साहको उदयमें लाकर अपने भीतर बल तथा उत्साहका यथेष्ट संचार करना होगा। साथ ही ऐसा प्रसंग जोड़ना होगा, जिससे अमृतोपम शास्त्र-वचनोंका श्रवण स्मरण तथा चिन्तनादिक बराबर होता रहे; क्योंकि ये ही चित्तको प्रसन्न रखने में परम महायक होते हैं। आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवर्द्धयेत्पानम् । स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत् क्रमशः॥६॥१२७॥ खरपान-हापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पंचनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्वयत्नेन ॥७॥१२८॥ ( साथ ही समाधिमरावा इच्छुक श्रावक) क्रमशः आहारकोकवलाहाररूपभोजनको-घटाकर (दुग्धादिरूप) स्निग्धपानको बढ़ावे, फिर स्निग्धपानको भी घटाकर क्रमशः खरपानको--शुद्ध कांजी तथा उष्ण जलादिको--बढ़ावे । और इसके बाद खरपानको भी घटाकर तथा शक्तिके अनुसार उपवास करके पंचनमस्कारमेंअर्हदादि-पंचपरमेष्ठिके ध्यानमें--मनको लगाता हुआ पूर्ण यत्नसेव्रतोंके परिपालनमें पूरी सावधानी एवं तत्परताके साथ-शरीरको त्यागे।' ___व्याख्या--कषायसल्लेखनाके अनन्तर काय-सल्लेखनाकी विधि-व्यवस्था करते हुए यहाँ जो आहारादिको क्रमशः घटाने तथा स्निग्ध-पानादिको क्रमशः बढ़ानेकी बात कही गई है वह बड़े ही अनुभूत प्रयोगको लिये हुए है। उससे कायके कृश होते हुए भी परिमाणोंकी सावधानी बनी रहती है और देहका समाधिपूर्वक त्याग सुघटित हो जाता है। यहाँ पंचनमस्कारके स्मरणरूपमें पंचपरमेष्ठियोंका-अर्हन्तों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों और साधु-सन्तोंका-ध्यान करते हुए जो पूर्ण सावधानीके साथ देहके त्यागकी बात कही गई है वह बड़े महत्व की है और इस वास्निग्ध-पाना योगको लिय बनी रहती
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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